मंगलवार

तन्हाई......



कितनी दूर हूँ सबसे
ये सबको कहाँ मालूम
कितने पास हूँ खुद से
ये मुझको कहाँ मालूम
एक आग है मुझमें
ये सबको पता है
मन क्या चाहता है
ये मुझको पता है
संवेदनाओं का समंदर
सिकुड़ना चाहता है
आशाओं का किनारा
विस्तार चाहता है
इस जीवन संग्राम में
लड़ना चाहती हूँ
नजरअंदाज कर दुखों को
बढ़ना चाहती हूँ
गमों को छिपाकर भी
हँसना चाहती हूँ
बेरहम हालातों में भी
जीना चाहती हूँ
सदा सभी का साथ
निभाना चाहती हूँ
इन सभी के लिए
सिर्फ तुम्हारा साथ चाहती हूँ
लेकिन...............
फिरभी इस भीड़ में
खुद को तन्हा पाती हूँ......

साभार
मालती मिश्रा

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