सोमवार

चाह


चाहा मैंने एक रोज ये,
कि मैं भी एक युग रचना कर पाऊँ|
जिस वसुधा पर पा जन्म प्रखर बनी,
सर्वस्व निछावर उसपर कर जाऊँ|
ज्ञान प्रयुक्त ज्योत्सना बन,
अज्ञान अंधेरे में भी मैं,
हर मार्ग प्रशस्त कर पाऊँ|
बन मधुर लहरिया सुर सरिता की,
जन जीवन मधुर बना पाऊँ|
बन धूप शीतमय जीवन में,
जन-जन को ऊष्णता दे पाऊँ|
ऊषा की लाली बन इस जग में,
मैं प्रेम वितान बना पाऊँ|
यह स्वप्न मेरा कि हर घर में, 
मैं ज्ञान की ज्योति जला जाऊँ....

साभार.....मालती मिश्रा

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