शनिवार

लोकतंत्र को रोपित करने के लिए 
संग्रहित किए तुमने बीज,
कुछ बीज आ गए महत्वाकांक्षा के
कुछ स्वार्थ, देशद्रोह के उनके बीच।
धरने और आंदोलन के 
खाद से पोषित कर किया बलिष्ठ,
जनमत के पानी से उसको 
सींच कर बना दिया विशिष्ट।
लोकतंत्र और देशभक्ति के 
नाम का जो वृक्ष उगाया,
आज वो वृक्ष वायुमंडल को 
घोटालों से कर रहा प्रदूषित।
अपने स्वार्थ का फल पकाने को
उस वृक्ष पर गजेंद्र को लटकाया जाता है,
देशद्रोह करने वालों को
सम्माननीय बनाया जाता है।
यदि ऐसा हर किसान हो मन्ना
तो खेतों में बंदूक उगेंगे,
नही उगेगा मीठा गन्ना।
हर घर में गोले-बम बनेंगे,
नहीं चलेगा बापू का चरखा।
कृषि प्रधान इस देश में मन्ना
कैसी कृषि तुमने कर डाली,
देने चले थे समानाधिकार सबको
एकाधिकार की खुजली दे डाली।
बापू के आंदोलन को लजाया,
धरनों का तुमने नाम डुबाया।
अब आंदोलन की उपज एक ही
धरना का शहंशाह कहलाता है,
कर्म न करता खुद से कुछ भी
कर्मरत पर अभियोग लगाता है।
क्या यही लोकतंत्र देने आए थे,
या जनता का सुख हरने आए थे।
यदि नही तुम्हारा लाभ है इसमें
तो क्यों शांति से अब बैठ रहे,
क्यों अपने कुपोषित वृक्ष की जड़ को
खोदने की युक्ति न निकाल रहे।
क्यों नहीं उसे काटने को 
धरना आंदोलन करते हो,
या अपनी उपज से ही अब तुम
कुछ फल की आशा करते हो।।
मालती मिश्रा 


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