बुधवार

जाग नारी पहचान तू खुद को

नारी की अस्मिता आज
क्यों हो रही है तार-तार,
क्यों बन राक्षस नारी पर
करते प्रहार यूँ बारम्बार।
क्यों जग जननी यह नारी
जो स्वयं जगत की सिरजनहार,
दुष्ट भेड़ियों के समक्ष
क्यों पाती है खुद को लाचार।
क्यों शिकार बनती यह जग में
नराधम कुंठित मानस का,
क्यों नहीं बनकर के यह दुर्गा
करती स्वयं इनका शिकार।
जो नारी जन सकती मानव को
क्या वह इतनी शक्ति हीन है,
क्यों नही दिखाती अपना बल यह
क्यों नहीं दिखाती नरक द्वार।
सुन हे अबला अब जाग जा
पहचान तू अपने आप को,
पहचान ले अपनी शक्तियों को
त्याग दे दुख संताप को।
नहीं बिलखने से कुछ होगा
दया की आस तू अब छोड़,
उठने वाले हाथों को तू
बिन सोचे अब दे तोड़।
जो दया है तेरी कमजोरी
तू अपनी शक्ति उसे बना,
जैसे को तैसा के सिद्धांत
बिन झिझके अब तू ले अपना।
अब कृष्ण नहीं आएँगे यहाँ
तेरी चीर बढ़ाने को,
तुझे स्वयं सक्षम बनना होगा
दुशासन का रक्त बहाने को।
गिद्ध जटायू नहीं इस युग में
तेरा सम्मान बचाने को,
राम बाण तुझे ही बनना होगा
रावण की नाभि सुखाने को।
जाग हे नारी पहचान तू खुद को
तू आदि शक्ति तू लक्ष्मी है,
महिषासुरों के इस युग में
तुझमें ही महिषासुरमर्दिनी है।
सीता-सावित्री अहिल्या तुझमें 
तो दुर्गा-काली भी समाई है,
पुत्री,भार्या, भगिनी है तो
दुर्गावती लक्ष्मीबाई भी है।
मत देख राह तू कानून का
वह तो पट्टी बाँधे बैठी है,
उसकी आँखों के सामने ही 
आबरू की बलि चढ़ती है।
न्याय तुझे पाने के लिए 
अपना कानून बनना होगा,
छोड़ सहारा दूजे लोगों का
खुद सशक्त हो उठना होगा।।
मालती मिश्रा 



2 टिप्‍पणियां:

  1. मेरे ब्लॉग पर आने और मेरी रचना को शामिल करने के लिए बहुत-बहुत आभार दिग्विजय अग्रवाल जी।

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  2. मेरे ब्लॉग पर आने और मेरी रचना को शामिल करने के लिए बहुत-बहुत आभार दिग्विजय अग्रवाल जी।

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