शुक्रवार

क्यों......


जब से मिली मैं उस कृशकाय 
निर्बल और असहाय 
स्वयं ही अपनी आत्मा पर बोझ सम 
उस निरीह मृतप्राय काया से....
एक ही प्रश्न बार-बार 
कर रहा मेरे मस्तिष्क पर प्रहार 
क्यों???
क्यों.....
गलत सही की परिभाषाएँ
नही होतीं सभी के लिए एक समान 
क्यों फँसता है मन 
कशमकश की उलझन में...
क्यों???
अपनी हर समस्या का समाधान 
किसी से भी कभी भी नही पा लेता इंसान
क्यों ऐसा होता है???
जो किसी के लिए सही 
तो किसी के लिए गलत होता है वही
क्यों जीवन की सभी राहें 
सभी को एक ही मंजिल पर नहीं ले जातीं
क्यों कोई मार्ग सही 
तो कोई गलत हो जाता है?
क्यों??? 
एक ही गलती किसी के लिए गलती
तो किसी के लिए अभिशाप बन जाती है
क्यो???
हमारी जो समस्या हमारे लिए विकराल है
उसी पर किसी अन्य के बड़े 
साधारण से खयाल हैं 
क्यों लोग किसी की मनोदशा नहीं समझते
क्यों???
किसी की विवशता को
उसके किए न किए अपराधों का 
परिणाम मानते हैं 
क्यों??? 
सिर्फ 'मैं' सही होता है, 'तुम' या 'वह' नहीं
क्यों???
बहुधा यह 'मैं' 'हम' नहीं बन पाता
और तू-तू, मैं-मैं में जीवन निकल जाता
क्यों???
रेशमीं सौंदर्य के पीछे की कुरूपता 
नहीं नजर आती
क्यों??? 
मुस्कुराहटों के पीछे की उदासी
नही दिखाई देती
क्यों???
बाहरी आवरण में लिपटी 
मृतप्राय कृशकाय काया नहीं दिखाई देती
आखिर क्यों??? क्यों??? क्यों???

मालती मिश्रा


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