शुक्रवार

अन्तर्ध्वनि

अन्तर्ध्वनि......
कभी-कभी हमारी जिह्वा कुछ कहती है
और हमारा हृदय कुछ और,
कभी-कभी हमारा मस्तिष्क
कुछ निर्णय लेता है
किंतु हमारा हृदय कतराता है,
कभी-कभी हम वह नहीं सुनना चाहते
जो हमारा हृदय हमें बतलाता है।
अक्सर हमें मस्तिष्क की बात भली लगती है
और हृदय की बुरी,
कभी-कभी हम लोगों के समक्ष
कुछ ऐसा कर जाते हैं
कि उनकी नजर में महान कहलाते हैं,
परंतु अपनी दृष्टि में गिर जाते हैं।
कभी-कभी हम जो बातें
डंके की चोट पर ताल ठोंक कर
बोलते हैं,
अक्सर आईने में स्वयं से
नजरें मिलाकर बोलने में कतराते हैं।
कभी-कभी हम किसी से
कुछ दावा तो कर देते हैं,
परंतु नजरें बचाकर
अपने कानों को हाथ लगाते हैं।
क्यों......
क्योंकि व्यक्ति दुनिया से झूठ बोल सकता है
परंतु खुद से नहीं,
दिमाग से लिया गया निर्णय
स्वार्थग्रस्त हो सकता है
परंतु आत्मा का निर्णय नहीं
अक्सर हमारी मौखिक ध्वनि
भिन्न होती है
हमारी अन्तर्ध्वनि से,
अक्सर बाह्य ध्वनि का रूप
समय के साथ
परिवर्तित होता रहता है
किंतु अन्तर्ध्वनि सदा शाश्वत है।
जलज ज्यों पंक में रहकर भी
निर्मल पावन होता है,
छल-कपट-स्वार्थ के कीचड़ में
अन्तर्ध्वनि सदा समरूप
निस्वार्थ और पावन होता है।
वह ध्वनि जिसे मैं सुना न सकी
जिसका जग वरण कर न सका
जिस ध्वनि का जग में गौरव है
पर मान नहीं,
उस अन्तर्मन की अन्तर्ध्वनि को
मैंने शब्दों का रूप दिया,
और अन्तर्ध्वनि पर उतार दिया।
अन्तर्ध्वनि मेरी वह ध्वनि है
जो अनकहे भाव दर्शाती है,
जिह्वा व्यथित हो शांत जब होती
अन्तर्ध्वनि मेरी ध्वनि बन जाती है।
मालती मिश्रा

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