रविवार

हिंदी का दर्द

हिंदी का दर्द

हिंदी हमारी मातृभाषा है किंतु अपने ही देश मे हमारी राष्टृभाषा की जो बेकदरी हो रही है उसे देख संतानों के होते हुए वृद्धाश्रम में जीने को मजबूर माँ की दशा आँखों के समक्ष प्रत्यक्ष हो जाती है | माँ अपनी संतान को अपना दूध पिलाकर ही नही अपने खून से सींचती है किंतु संतान अपने कर्तव्यों से विमुख हो उसे बेसहारा दर-दर भटकने को छोड़ देते हैं ठीक उसी प्रकार हमारी पहचान जो हमने बनाई है वो अपनी मातृभाषा से ही बनाई है किंतु आज हम हिंदी बोलने में ही शर्मिंदगी महसूस करते हैं और अंग्रेजी बोलने में अपनी शान समझते हैं, ये तो वही बात हो गई कि अपनी माँ को माँ कहने में लज्जा आती है और परायों की माँ को बिठाकर पूजने में गर्व महसूस करते हैं कभी सोचा है कि ऐसा क्यों? क्योंकि उनकी संताने उन्हें आदर देती हैं इसीलिए| यदि हमारी तरह वो लोग भी अंग्रेजी को उपेक्षित समझते और अपनी मातृभाषा का अपमान करते तो निश्चित रूप से हम या अन्य भी उसे सिर आँखों पर न बैठाते |
ये तो हमारी परंपरा रही है कि अतिथि का सत्कार करें परंतु अपनों का अपमान करने की परंपरा नहीं रही है, हमें हर भाषा का सम्मान करना चाहिए परंतु अपनी भाषा के सम्मान की कीमत पर नहीं...आज विद्यालयों में हिंदी अनिवार्य होने के कारण पढ़ाई तो जाती है परंतु महज खानापूर्ति के लिए, एक अध्यापिका के तौर पर मैंने देखा है कि विद्यालयों में हर विषय अंग्रेजी में पढ़ाये जाते है सिर्फ हिंदी एक अकेला विषय होने के कारण उसपर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता यहाँ तक कि छात्रों के मस्तिष्क में यही सोच बिठा दिया गया है कि उनके भविष्य के लिए हिंदी का कोई महत्व नहीं, यही कारण है कि आज दसवीं के छात्र को भी ठीक से हिंदी लिखनी और बोलनी नहीं आती....इन अंग्रेजी विद्यालयों में हिंदी के अध्यापकों की दशा भी हिंदी की ही तरह दीन-हीन अर्थात् उपेक्षित है और उन्हें हिंदी भाषा को भी अंग्रेजी में पढ़ाने का निर्देश दिया जाता है | इससे ये समझा जा सकता है कि जब देश में अपनी मातृभाषा को लेकर ऐसी उदासीनता ऐसी उपेक्षा हो तो हम कैसे एक विकसित देश के वासी कहलाने का स्वप्न पूरा कर सकते हैं.....

मालती मिश्रा

कहें मोदी सुनो भई साधो


कहें मोदी सुनो भई साधो 
सच्चाई से मुँह न मोड़ 
देश को अगर चमकाना है तो 
चलो एक कदम स्वच्छता की ओर
सम-विषम के भ्रम में पड़कर
ध्यान न लगाना दुर्गुणता की ओर 
देश को आगे बढ़ाना है तो 
जन-जन जाने स्टार्ट-अप का जोर
चलो एक कदम स्वच्छता की ओर 
जीवन का बस लक्ष्य यही रखना
कोई न बढ़े निर्बलता की ओर 
मन में सुरक्षा लाना है तो 
खुद को जन-धन योजना से जोड़
चलो एक कदम स्वच्छता की ओर
घर-घर में हो ज्ञान का उजाला 
छँटे अँधेरा हो जाए भोर
जन-जीवन आलोकित करना है तो 
शिक्षा का घर-घर पहुँचे शोर
चलो एक कदम स्वच्छता की ओर
माना कि पथ में बाधाएँ बहुत हैं 
फिरभी बुराई का कब चला है जोर
भ्रष्टाचार मिटाना है तो 
चल पड़ो जीरो टॉलरेंस की ओर
चलो एक कदम स्वच्छता की ओर 
आरक्षण का छोड़ के ड्रामा 
बढ़ते जाओ गुणवत्ता की ओर 
आर्थिक समानता गर पाना है तो
मन सबके साथ सबके विकास से जोड़
चलो एक कदम स्वच्छता की ओर 
दलित न पिछड़ा सब बस मानव
सबके हाथ विकास की डोर
ऊँच-नीच का भेद मिटाना है तो
मेक-इन-इंडिया पे लगा दो जोर
चलो एक कदम स्वच्छता की ओर 
नारी को सम्मान है देना 
शिक्षा पर है सबका जोर 
बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ
चलो सुकन्या योजना की ओर
चलो एक कदम स्वच्छता की ओर
राजनीति का चक्रव्यूह यूँ 
तुम्हें भरमाए करके शोर 
कृषकों को उन्नत करना है तो 
चलो थामें जैविक कृषि की डोर
चलो एक कदम स्वच्छता की ओर 
ध्यान लगाकर बढ़ मंजिल पर
कोई मचाए कितना भी शोर
शिकायत की झाड़ू न इल्जाम का पोछा
मनवा लागे प्रतिबद्धता की ओर
चलो एक कदम स्वच्छता की ओर
कहें मोदी सुन भाई साधो 
सोने को घर में न बाँधो 
धन की वृद्धि सुनिश्चित करना है तो 
चलो चलें मुद्रा योजना की ओर
देश को गर चमकाना है तो
चलो एक कदम स्वच्छता की ओर....

मालती मिश्रा...

बुधवार

रामचंद्र कह गए सिया से



राम चंद्र कह गए सिया से 
ऐसा कलयुग आएगा 
सत्य छिपेगा घरों के भीतर 
असत्य ही ढोल बजाएगा 
मेहनत करने वाला मानव 
हर चीज की तंगी झेलेगा 
चोर और भ्रष्टाचारी 
छप्पन भोग लगाएगा 
झूठ के भ्रम जाल में जन-जन
इस कदर फँस जाएगा
सच्चाई के पथगामी पर 
प्रतिक्षण आरोप लगाएगा 
मोहमाया के वशीभूत हो 
आँखों देखी मक्खी निगलेगा 
सत्य का गला घोंट के भइया
झूठ के पाँव पखेरेगा 
रामचंद्र कह गए सिया से 
ऐसा कलयुग आएगा
सच्चाई को रौंद के झूठ
चैन की बंसी बजाएगा..

मालती मिश्रा

सोमवार

मीरा...


   गाड़ी का तेज हॉर्न सुनाई पड़ा और गाड़ी पटरी पर धीरे-धीरे सरकने लगी...मामा जी नमस्ते...बच्चों ने कहा 
अच्छा अपना ध्यान रखना...कहकर मामा ने हाथ हिलाया
ठीक है, तुम चलो...मीरा ने कहा 
गाड़ी पूरी गति से भागती जा रही थी, दूर आसमान में सूर्य देव भी विश्राम हेतु अपना मस्तक बादलों कें आँचल में छिपाने को तत्पर प्रतीत हो रहे थे, सभी अपना-अपना स्थान ग्रहण कर चुके थे...

खिड़की से बाहर पीछे की ओर भागते पेड़ों के झुंड, बाग-बगीचे, खेत, कहीं-कहीं घास-फूस से बनीं झोपड़ियाँ,कहीं दूर होते दिखाई देते गाँव जितनी तेज गति से पीछे की ओर भाग रहे थे मीरा का मस्तिष्क भी उतनी ही तीव्रता से पीछे की ओर भाग रहा था...
अभी पिछले सप्ताह ही तो वो अपने दोनों बच्चों के साथ गाँव आई थी 
भाभी और चाची के साथ बगीचे में जा रही थी सामने से एक स्त्री उसे बड़े गौर से देखती हुई चली आ रही थी...धीरे-धीरे वो पास और पास आती जा रही थी, मीरा को वह स्त्री कुछ जानी पहचानी लगी उसने अपने दिमाग पर जोर डाला पर कुछ याद न आया कि वह कौन है, वह स्त्री बिल्कुल पास आ चुकी थी...दुबली पतली छरहरी सी काया, रंग जरूर गेंहुआ रहा होगा परंतु गाँव में अभावों की मार ने रंग को दबा दिया था, चेहरे पर झुर्रियों ने अपना कब्जा करना शुरू कर दिया था....मैली-कुचैली सी साड़ी जीवन निर्वाह के लिए अभावों से उसके संघर्ष की कथा बयाँ कर रही थी... वह बगल से होती हुई ऐसे निकल गई जैसे जानने की कोशिश करते हुए भी जान न पाई हो, मीरा को भी कुछ याद न आया कि वह उस स्त्री को जानती है भी या नहीं...
वह भी चुपचाप ख्यालों में खोई चलने लगी परंतु दिमाग में एक उथल-पुथल सी मची हुई थी कि आखिर कौन है वो महिला? मैं उसे जानती तो जरूर हूँ पर याद नहीं आ रही..आखिर उससे रहा न गया और वो पूछ ही बैठी...
काकी वो औरत जो अभी यहाँ से गई है कौन है? वो...तुम तो जानती होगी उन्हें, पहचान नहीं पाईं क्या..काकी ने कहा
तभी तो पूछ रही हूँ, पहचान रही हूँ पर याद नही आ रहा कि कैसे जानती हूँ..शायद उम्रदराज हो गई हैं इसीलिए...
अरे हमने तो सुना है कि तुम लोग एक साथ पढ़ते थे...चाची ने कहा
अब मेरे सब्र की परीक्षा मत लो, बता तो दो कौन है वो....मीरा ने अधीर होकर पूछा
मुन्नी..वो तो याद है न तुम्हें, चाची ने कहा
मैं उसे कैसे भूल सकती हूँ...मीरा ने कहा, पर क्या ये वो है ? अचानक मीरा को जैसे झटका सा लगा हो? य ये तो बूढ़ी सी लग रही है...
ये वही हैं...अब सब तुम्हारी तरह जवान तो नही बना रह सकता न....भाभी ने मजाकिया लहजे में हँसते हुए कहा,
लेकिन वो तुमसे बोलीं क्यों नही? भाभी के चेहरे पर आश्चर्य की रेखाएँ खिंच आईं....
ये तो वही जाने...कहते हुए मीरा ने लापरवाही से कंधे उचका दिए जैसे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता पर वो भीतर ही भीतर क्रोध से जलने लगी थी किंतु अगले ही पल स्वयं को सामान्य कर लिया ये सोचकर कि जो बीत गया सो बीत गया और फिर भाभी और चाची के साथ बतियाते में व्यस्त हो गई....
  
  कड़ाके की ठंड थी, दूर कहीं से कुत्तों के भौंकने की आवाज आ रही थी, सभी गहरी नींद में सो चुके हैं परंतु नींद मीरा की आँखों से कोसों दूर थी करवटें बदलते हुए उसे बहुत देर हो गई बार-बार मुन्नी का वो कमजोर झुर्रियों वाला चेहरा आँखों के सामने उभरने लगता, कितनी उम्रदराज नजर आने लगी है..उसे देखकर कौन कह सकता है कि वो एक उच्चशिक्षिता महिला है, आज सालों बाद दोनों आमने-सामने थीं परंतु......
न चाहते हुए भी पुरानी यादें मीरा के मनोमस्तिष्क में चलचित्र की भाँति घूमने लगीं.....हरिजन टोले में उसका आना-जाना न था क्योंकि कोई जरूरत ही न पड़ती उधर जाने की परंतु गाहे-बगाहे यदि कभी जाना भी होता तो अपनी सहेली मुन्नी की खातिर....मुन्नी उसके साथ उसी की कक्षा में पढ़ती थी, दोनों के बाबूजी भी लखनऊ में एक साथ एक ही विभाग में कार्यरत थे इसीलिए गाँव के ऊँच-नीच वाली भावना शहर में आकर खत्म हो गई थी, मीरा की कक्षा में उसके गाँव बल्कि पट्टीदार से ही दो और लड़कियाँ पढ़ती थीं, चारों ही अच्छी सहेलियाँ थीं परंतु मुन्नी और मीरा की दोस्ती उन सबसे अलग और प्रगाढ़ थी....वो दोनों साथ-साथ हर जगह जातीं, स्कूल का गृहकार्य एक साथ करतीं, ट्यूशन एक साथ जातीं और क्लास में यदि एक देर से आती तो दूसरी उसके लिए सीट रिज़र्व रखती....कोई भी उन दोनों के विषय में अलग-अलग कल्पना ही नहीं कर सकता था.... हालाँकि दोनों की उम्र में थोड़ा अंतर था जैसा कि माँ ने बताया था मुन्नी मीरा से एक-डेढ़ साल बड़ी थी....शायद इसीलिए वो मीरा की तुलना में गंभीर थी मीरा चंचल और शरारती थी परंतु समझदार थी वह ये भी समझती थी कि उसकी बाकी दोनों सहेलियों जो कि परिवार से ही संबंध रखती थीं उनके माता-पिता को मीरा का मुन्नी से इतनी घनिष्टता अच्छी नही लगती थी क्योंकि मुन्नी हरिजन थी, पर मीरा के माँ और बाबूजी को दोनों की दोस्ती से कोई ऐतराज न था हाँ माँ को दोनों के एक-दूसरे का जूठा खाने से जरूर ऐतराज था इसलिए वो माँ के सामने मुन्नी का जूठा नहीं खाती थी....

  मीरा पढ़ने में बहुत होशियार थी और हमेशा सभी सहपाठियों की मदद भी करती, कहते हैं बच्चे निश्छल निष्पाप होते हैं, दसवीं कक्षा में होने के बाद भी मीरा का मन छोटे बच्चे की तरह निश्छल और किसी प्रकार के दुराभाव से दूर था हाँ इतना जरूर था कि वो अपने सामने वालों से भी वैसे ही व्यवहार की आशा रखती थी जैसा व्यवहार वो उनके साथ करती थी....उसे नहीं पता था कि दुनिया उतनी भी सुंदर या छलरहित नही जितना वो समझती है |

  ग्यारहवीं कक्षा में ही तो थी वो जब बातों-बातों मे एक दिन मुन्नी ने उसे अपने और दिवाकर के संबंध के विषय में बताया था...मीरा को तो मानो काटो तो खून नहीं, वो तो ऐसे किसी संबंध के विषय में कल्पना भी नही कर सकती थी और इतनी गहरी मित्रता के बाद भी उसे आज तक कुछ पता नही था....
ये सब कब से चल रहा है? मीरा ने संभलते हुए कड़वाहट भरे लहजे में पूछा
तीन महीने हो गए...मुन्नी ने बड़ी ही सहजता से बताया
तुझे नही लगता कि ये अनैतिक संबंध है, तू उसे भइया बोलती है...
अब प्यार हो गया तो क्या करूँ...मुन्नी ने बड़ी ही बेशर्मी से जवाब दिया..
प्यार वो भी एक शादीशुदा व्यक्ति से, कुछ तो शर्म कर..मीरा ने घृणा भरे लहजे में कहा...
तो क्या हुआ? वैसे भी ये सब भावनाएँ अपने-आप उपजती हैं कोई सोच-समझ कर नही करता ये सब 
तुझे शर्म नहीं आती एक तो गलती करती है फिर उसकी वकालत भी कर रही है, कुछ सोचा भी है कि तेरे माँ-बाप को पता चलेगा तो क्या बीतेगी उनपर....मीरा ने बिफरते हुए कहा, गुस्से और आश्चर्य का मिला-जुला भाव उसके चेहरे पर था, उसे समझ नही आ रहा था कि वो अपनी सबसे प्यारी सहेली को कैसे इस पाप से मुक्त करे, वो स्वयं को असहाय महसूस कर रही थी..
उनकी चिंता तो मुझे भी है पर दिवाकर कह रहा था कि वो उन्हें पता ही नही लगने देगा...
सच तो ये है मुन्नी कि वो तुझे बेवकूफ बना रहा है, अच्छा होगा कि ये सब यहीं खत्म कर दे इस रिश्ते का कोई भविष्य नही....अब तक मीरा ये समझ चुकी थी कि उसकी सहेली पर उसके समझाने का कोई असर न होगा फिर भी उसने आखिरी कोशिश की |
मैं चाहूँ तो भी उसे नहीं छोड़ पाऊँगी, पर मैं तुझे कैसे समझाऊँ, एक तू ही तो है जिसे मैं सबकुछ बता सकती हूँ पर तू भी बड़े-बूढ़ों की तरह भाषण देने बैठ गई....मुन्नी ने तुनकते हुए कहा
वैसे मुझे ना ही बताती तो अच्छा होता, खैर अब मैं कर भी क्या सकती हूँ....मीरा ने निराश होते हुए कहा
तू किसी से बताएगी तो नही ? मुन्नी ने डरने का नाटक करते हुए कहा...वो जानती थी कि मीरा किसी को नही बताएगी...
नहीं, पर मुझसे उसके बारे में फिर कोई बात मत करना मुझे अच्छा नहीं लगता....तू मेरी सहेली है और रहेगी पर इन सब मामलों से मुझे दूर ही रखना...कहते हुए मीरा उठकर मुन्नी के घर से चल दी...
र र रुक रुक कहती हुई मुन्नी ने उसका हाथ पकड़ लिया...
क्या हुआ ? मीरा ने पूछा
मुझे १०० रूपये की जरूरत है वो दिवाकर को चाहिए, देख मना मत करना उसे बहुत जरूरत है नही तो वो मुझसे न कहता...मुन्नी ने याचना भरे लहजे में कहा,
अच्छा...अब समझी अगर पैसों की जरूरत न होती तो तू आज भी मुझे ये सब न बताती, है न..
शायद...मुन्नी ने कहा
ठीक है कल ले लेना पर मैं उधार दे रही हूँ ये ध्यान रखना...बड़ी मुश्किल से जेबखर्च से बचाए हैं...मीरा ने कहा और उसके घर से निकल कर अपने घर की ओर चल दी...उसके दिमाग में मुन्नी के द्वारा कहे गए एक-एक शब्द हथौड़े की तरह बज रहे थे, उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि उसने अपनी प्यारी सहेली को खो दिया....घर की ओर बढ़ते उसके कदम इतने भारी महसूस हो रहे थे कि एक-एक कदम रखना उसके लिए मुश्किल हो रहा था.....

  घर पहुँचकर भी मीरा जल्दी सामान्य न हो सकी अचानक ही उसे ऐसा लगने लगा कि रातों-रात वो बड़ी और जिम्मेदार हो गई है, शायद उसकी प्रिय सखी के इस अप्रत्याशित घटना ने उसे समझदार बना दिया था...वो असमंजस में पड़ गई कि उसे अब क्या करना चाहिए? अपनी सहेली को इस पाप के कुएँ से बाहर निकाल कर लाए..पर कैसे ? क्या उसे मुन्नी के माता-पिता को सारी बातें बता देनी चाहिए? पर क्या वो उसकी बात मानेंगे? शायद नहीं.....वो एकबार ऐसा करके खुद फँस चुकी है....उस समय तो वो छोटी थी जब पड़ोस में रहने वाले दूर के रिश्ते के ताऊ की बेटी ने कहा था कि वो किसी के साथ भाग जाएगी, कहीं वो सचमुच ही ऐसा न कर दे ये सोचकर मीरा डर गई और उसने ताई जी को बता दिया कि दीदी किसी के साथ भाग जाने को कह रही थीं...फिर क्या था...ताई जी की बेटी मुकर गई और फिर ताई जी ने जो बवाल मचाया..छोटी-सी मीरा पर बदनाम करने का इल्जाम लगाकर माँ से लड़ने लगी थीं और गुस्से में बाबूजी ने मीरा की पिटाई कर दी थी....माँ मैं झूठ नहीं बोल रही हूँ सचमुच दीदी ने ऐसा ही कहा था..मीरा ने माँ से लिपटकर सुबकते हुए कहा...
मुझे पता है बेटा तू सच बोल रही है, पर आगे से ध्यान रखना कोई कुछ भी करे कुछ भी कहे सब देखकर अनदेखा और सुनकर अनसुना कर देना, सब तुम्हारी तरह सच्चे नहीं होते, अपनी बात से मुकर कर दोष तुम पर ही मढ़ देंगे इसलिए ऐसी बातों से दूर रहा करो....माँ ने उसके आँसू पोंछते हुए प्यार से बालों को सहलाते हुए समझाया था |

  अब एकबार मीरा फिर से उसी दोराहे पर खड़ी थी, वो क्या करे यदि वो मुन्नी के माता-पिता को बता दे तो ये अपनी सहेली के साथ विश्वासघात होगा... और यदि नहीं बताती है तो!!!! तो हो सकता है उसकी सहेली कोई ऐसा कदम उठा ले जिससे उसका भविष्य अंधकारमय हो जाए....
पर यदि वो अपनी सहेली की भलाई के लिए उसके साथ विश्वासघात करके उसके माँ-बाप को बता भी देती है तो क्या वो लोग मानेंगे उसकी बात..मुन्नी ने उसे ही झूठ बता दिया और वो लोग भी कहीं ताऊ जी और ताई जी की तरह उसपर ही बदनाम करने का इल्जाम लगाने लगे तो!!! फिर तो बाबू जी भी बर्दाश्त नहीं करेंगे... नहीं वो नहीं बता सकती, वो कुछ भी तो नहीं कर सकती..इस समय मीरा अपने आप को बहुत ही असहाय महसूस कर रही थी, सोच-सोच कर उसका सिर दर्द से फटा जा रहा था पर कोई रास्ता न निकला...हार कर उसने सबकुछ वक्त पर छोड़ दिया.....

  दोनों स्कूल जातीं एक-दूसरे से बात भी करतीं पर दोनों की दोस्ती में कहीं कुछ दुराव जरूर आ गया था पर कहते हैं कि समय सबसे बड़ा मरहम होता है, बड़े से बड़ा जख्म भर देता है, बड़ी से बड़ी घटना की टीस मिटा देता है मीरा की ये कुछ न कर पाने की टीस भी धीरे-धीरे मिटने लगी और वो सामान्य होने लगी| धीरे-धीरे पाँच-छः महीने बीत गए किन्तु वो चाहते हुए भी मुन्नी से वो अपनत्व नहीं महसूस कर पा रही थी जो पहले हुआ करती थी, एक अनचाही अनदेखी सी दीवार दोनों के बीच महसूस करने लगी थी...पर उसने इन सबसे अपना ध्यान हटाकर पढ़ाई की तरफ लगाने का फैसला कर लिया और पढ़ाई को ज्यादा से ज्यादा समय देने लगी ताकि परीक्षा में अच्छे नम्बरों से पास हो सके और इन फिजूल की बातों से स्वयं को दूर रख सके....
पर कहते हैं न कि सच्चाई को कितना भी छिपाया जाय वो बाहर आने के लिए अपनी राह स्वयं बना लेती है यही मीरा की सहेली मुन्नी के साथ भी हुआ.....

  रात के ग्यारह बज रहे थे बाबूजी कभी इतनी देर तक घर से बाहर नहीं रहते थे पर आज न जाने कहाँ हैं, अभी तक खाना भी नहीं खाया, माँ भी चिंतित हो रही थीं वो मीरा को भाई के साथ बाबूजी को बुलाने के लिए भेजने ही वाली थीं कि तभी बाबूजी आ गए...क्या हुआ बहुत परेशान दिखाई दे रहे हो ? माँ ने बाबूजी की तरफ ध्यान से देखते हुए पूछा...
सब इस लड़की की वजह से, नाक कटवा दिया इसने मेरी...बाबूजी ने गुस्से पर काबू पाने की कोशिश करते हुए कहा
मीरा अंजाने भय से काँप उठी
क्या हुआ, क्या किया इसने? माँ ने आश्चर्य से पूछा...
वो इसकी सहेली मुन्नी आज शाम को वो...छिः छिः कैसे कहूँ कहते हुए भी शर्म आती है...वो जो दिवाकर है उसके साथ अपने ही घर में पकड़ी गई.... बाबू जी ने बोलते हुए घृणा से ऐसे मुँह बनाया जैसे नीम की कड़वाहट मुँह में घुल गई हो..
क्या!!!! राम राम राम क्या कह रहे हो ये.....माँ ऐसे अचंभित होकर बोलीं जैसे बाबूजी ने कोई असम्भव और बेहद घृणित बात कह दी हो...
लेकिन इसमें हमारी मीरा का क्या दोष? माँ ने मीरा की तरफदारी वाले लहजे में कहा...
दूसरी तरफ मीरा स्तंभित खड़ी थी, उसे काटो तो खून नही..पूरा शरीर सुन्न सा हो रहा था, वो डर के मारे काँप रही थी, उसे ऐसा लग रहा था कि आज फिर वो गलती न होने के बावजूद फँस न जाए....
गलती...गलती नहीं है इसकी?  पूछो इससे, क्या इसको पता नहीं था...बाबूजी अपने क्रोध पर नियंत्रण करने का प्रयास करते हुए बोले, वो बेचारा लाचार बाप रो रहा है....
मीरा को हर पल लग रहा था कि अभी उसकी पिटाई शुरू हो जाएगी....परंतु उसने साहस किया और बोली-पर इसमें मेरा क्या दोष? कोई मैंने उसे कुछ कहा था...मुझे भी तो उसने अभी कुछ दिन पहले ही बताया था...
तो तूने हमें बताने की बजाय उल्टा उसके इस पाप में मदद कर रही थी, बाबूजी ने बिफरते हुए कहा
मैंने क्या मदद की?  मीरा बोली
बदतमीज एक तो गलती करती है उल्टा जबान भी चलाती है...कहते हुए बाबूजी अपने गुस्से पर नियंत्रण न रख सके और पिटाई शुरू कर दी मीरा की...
जैसे-तैसे माँ ने बाबूजी को रोका, तब तक मीरा की अच्छी खासी पिटाई हो चुकी थी...वो रो रही थी और समझ नहीं पा रही थी कि बाबूजी को कैसे पता कि मैं जानती थी...पर बाबूजी की बातों से इतना तो पता चल गया था कि मुन्नी के बाबूजी का रोना उनसे सहन नहीं हो पा रहा था, वो एक बाप के सम्मान को खंडित होते नहीं देख सकते, मीरा ये पहले से ही जानती थी....
पिटकर मीरा रोती हुई अपने कमरे में चली गई और बिस्तर में मुँह छिपाकर रोने लगी....माँ-बाबूजी ने खाना नही खाया, किसी अन्य के कुकृत्य की अाँच इस घर में लोगों के हृदय को जला रही थी| माँ बाबूजी से कह रही थीं कि उन्हें मीरा को नहीं मारना चाहिए था आखिर उसने क्या किया है? तुम जानना चाहती हो कि तुम्हारी लाडली ने क्या किया है ? तो सुनो- मुन्नी और दिवाकर के जो भी संबंध थे उनके विषय में मीरा न सिर्फ जानती थी बल्कि उन्हें पैसे देकर उनकी मदद भी करती थी और पकड़े जाने पर ये सब अपने माँ-बाप को खुद मुन्नी ने बताया....और मुन्नी के माँ-बाप यही कह रहे हैं कि ये सब मुन्नी ने मीरा की शह पर किया नहीं तो उनकी बेटी ऐसा न करती, तुम सोच सकती हो कि ये सब सुन कर मुझे कैसा लगा होगा? 
मैं नही मान सकती, मेरी बेटी ऐसा नहीं कर सकती...माँ ने विरोध किया
हमारे मानने न मानने से क्या होता है, बदनाम तो वो लोग कर ही रहे हैैं...बाबूजी ने कहा
आखिर अपनी जात दिखा ही दिया उस लड़की ने, मैं कितना मना करती थी कि उससे दोस्ती न कर पर तब तो तुम भी मुझे ही समझाते थे अब देख लिया नीची जाति से दोस्ती का नतीजा...माँ खुद भी रोने लगीं और रोते-रोते मुन्नी को बद्दुआएँ देने लगीं....मीरा ने बाबूजी की बातें सुनी तो उसके पैरों तले जमीन खिसक गई, आखिर उसके साथ ऐसा क्यों होता है कि गलती कोई और करता है और इल्जाम और सजा उसे भुगतनी पड़ती है....इस समय मुन्नी के झूठ और आरोप से जो आघात उसे लगा था उसके दर्द ने बाबूजी के हाथों से खाई मार की चोट को भुला दिया वो रोती रही और सोचती रही कि क्या जीवन मे फिर किसी पर भरोसा कर पाएगी, उसे भरोसा न तोड़ने की सजा मिली है या भरोसा करने की? रोते-रोते कब उसकी आँख लग गई उसे पता ही न चला...

  चल उठ आठ बज गए आज स्कूल भी नहीं गई, कब तक सोती रहेगी? माँ ने उसे हिलाते हुए जगाया...
आठ बज गए? किसी में मुझे जगाया नहीं सोचते हुए मीरा को न जाने क्यों ऐसा लगा जैसे घर में सभी बदल गए हैं, सब उसपर अविश्वास करते हैं, अचानक ही उसे सब पराए लगने लगे....वह  उठी और नहाने चली गई आज बाबूजी ने उसे स्कूल जाने को नहीं कहा, उसे बाबूजी की वो बात याद आई "कि यदि कभी किसी के सामने तुम्हारी वजह से मेरी इज्जत पर प्रश्नचिह्न लगा या मुझे अपमानित होना पड़ा तो भूल जाना आगे की पढ़ाई"....तो क्या अब बाबूजी मुझे नहीं पढ़ाएँगे? उसका सिर घूमने लगा..उसे लगा अब सबकुछ खत्म, पढ़ाई और करियर को लेकर जो सपने देखे थे दोस्ती के एक धोखे ने सब खत्म कर दिया...
मीरा का साहस न हुआ कि वो बाबूजी से स्कूल जाने के लिए कह पाती और गुस्से ने बाबूजी के मनोमस्तिष्क पर इस प्रकार आधिपत्य जमा लिया था कि बाबूजी ने मीरा को स्कूल जाने को न कहा....धीरे-धीरे समय बीतता गया और विद्यालय का यह सत्र समाप्त हो गया |

  उधर जो सचमुच दोषी थी, जिसकी गलती थी उसके माता-पिता ने उसकी पढ़ाई जारी रखी...
अब मीरा को ऐसा लगता कि क्या ऐसे लोग भी होते हैं एक तरफ मुन्नी के माता-पिता अपनी बेटी की गलतियों के बावजूद उसे निरपराध साबित करने के लिए दूसरे पर दोष लगाते हैं और अपनी बेटी की शिक्षा पूरी करवाते हैं दूसरी तरफ उसके बाबूजी उसकी गलती न होते हुए भी उसे गलत मान बैठे और उसकी शिक्षा अधूरी रह गई....परंतु मीरा को अपनी पढ़ाई छूटने का जितना दुख था उससे कहीं ज्यादा खुशी उस दिन हुई थी जब उसने बाबूजी को माँ से ये कहते हुए सुना था कि उन्हें अपनी बेटी पर विश्वास है परंतु वो किसी से उसकी बुराई नहीं सुन सकते, इसीलिए वो उस इल्जाम को सहन नही कर पाए थे, उस समय मीरा को पता चला था कि यदि वो चाहती तो पढ़ाई जारी रख सकती थी बाबूजी उसे मना नही करते पर उसके पूर्वाग्रह के कारण ही उसकी शिक्षा अधूरी रह गई...

  अब मीरा आत्मग्लानि से बाहर आ चुकी थी...उसने फैसला किया कि वो फिर से पढ़ेगी और अपना फैसला माँ को बताया |
ठीक है गाँव से वापस आकर एडमिशन करवा देंगे, बाबूजी ने कहा 

  मीरा बहुत खुश थी मानो उसके जीवन की सबसे बड़ी सबसे अहम मुराद पूरी हो गई हो, वो अपना एक साल बर्बाद होने का दुख भूल गई और कल्पना करने लगी नए स्कूल नए अध्यापक की, मीरा ने सोच लिया कि अब वो किसी से उतनी गहरी दोस्ती नहीं करेगी जैसी मुन्नी से की थी...
मुन्नी और मीरा के बीच मनमुटाव होना स्वाभाविक था मीरा उसे अपना दोषी भी मानती थी, किंतु कभी-कभी वो ये भी सोचती कि क्या पता डर के मारे मार या सजा से बचने के लिए उसने ऐसा बोल दिया हो परंतु अगले ही पल फिर सोचती कि यदि ऐसा होता तो उसे कभी तो आकर उससे मिलना चाहिए था और बताती कि उसने ऐसा क्यों किया....पर उसे तो कभी अफसोस ही नहीं हुआ, उसने कभी नहीं सोचा कि उसकी वजह से उसकी सहेली की पढ़ाई छूट गई.....नहीं वो निर्दोष नहीं हो सकती
ऐसे न जाने कितने अन्तर्द्वन्द्व मीरा के मन चलते रहते और वो अकेले ही इन सवालों जवाबों में उलझी रहती, अब संभवतः जब वो फिर से पढ़ने लगेगी तो इन विचारों के जालों से बाहर आ सकेगी |

  विद्यालयों में ग्रीष्मकालीन अवकाश आरंभ हो चुका था, मीरा के बाबूजी ने छुट्टी के लिए प्रार्थना-पत्र दे दिया था मंजूरी मिलते ही वो लोग सपरिवार छुट्टी मनाने गाँव चले जाएँगे, गाँव के अन्य लोग और मुन्नी का परिवार पहले ही जा चुके थे 
आखिर बाबूजी की भी छुट्टी मंजूर हो गई और वो लोग भी गाँव पहुँच गए, एक साल के बाद सभी आए थे इसलिए मीरा और भाइयों ने दोनों चाचा के बच्चों के लिए कई उपहार खरीदे थे, सभी बहुत खुश थे पर मीरा अब इतनी भी छोटी नहीं थी कि बड़ों के चेहरे के भाव न पढ़ सके, उसे लगा कि माँ और बाबूजी किसी बात को लेकर बहुत परेशान हैं, शायद उन्हें कोई ऐसी खबर सुनने को मिली है जिससे वो बहुत परेशान हो गए है, वो जानना चाहती थी पर पूछने की हिम्मत नही हो रही थी....किससे पूछे कुछ समझ नहीं आ रहा था | अचानक उसने सुना माँ कह रही थीं- सबको बस हमारी लड़की आँखों मे खटकती है, करे कोई भरे कोई,
अब कोई संदेह नही कि बात मुझसे ही संबंधित है...मीरा ने सोचा, पर फिर भी किससे पूछूँ?  क्यों न माँ से...नहीं, अगर उन्हें बताना होता तो मुझे देख कर चुप न हो जातीं....मीरा फिर से सवालों जवाबों के घेरे में फँसने लगी....

  शाम का धुँधलका फैलने लगा था पक्षियों के झुंड के झुंड दिन भर के सफर के बाद विश्राम हेतु अपने-अपने बसेरों की तरफ जा रहे थे, किसानों ने भी बैलों को हलों से खोल लिया और हल कंधे पर रख बैलों को हाँकते हुए खेतों से घरों की ओर रुख कर लिया है...बस अगर कोई अभी घर जाने को उत्सुक नहीं दिखाई देता तो वो बच्चे हैं जिनका खेलकर अभी भी मन नहीं भरा और वो बगीचे में अभी भी खेलने में व्यस्त हैं....मीरा भी अपनी दादी के साथ घर जा रही थी गाँव में घुसते ही एक महिला दादी से बात करने लगीं- तुम्हारे बेटे बहू कब आए लखनऊ से..महिला ने पूछा
अभी कल ही आए हैं..दादी ने जवाब दिया
बिटिया क्या मिल गया तुम्हें ये सब करके? अपने बाप की नाक कटवा दी और पढ़ाई छूटी सो अलग...अचानक उस महिला ने मीरा की ओर मुखातिब होकर कहा,
कक् क्या किया है मैने? मीरा ने आश्चर्य से कहा
इसने कुछ नहीं किया, वो सब ते वो चमार टोले की मुन्निया है न उसका काम था, करतूत उसकी थी नाम हमारी बच्ची का लगा दिया, हमारी मीरा ने कुछ न किया..दादी बिफरते हुए बोलीं
क्या कह रही हो ?महिला मे आश्चर्य से कहा- अभी पिछले हफ्ते ही तो वो हमसे मिली थी, हमने पूछा कि मीरा कैसी है? तो कहने लगी हमें क्या पता...तो हमने कहा क्यों नही पता, तेरी तो सहेली है और साथ-साथ पढ़ते हो तुम दोनों तो पता क्यों नहीं ? तो पता है क्या बोली वो छोरी? वो महिला बिना रुके एक ही साँस में बोली...
क्या कहा? मीरा ने पूछा
कहने लगी वो कैसे पढ़ेगी मेरे साथ, भाग गई थी वो किसी के साथ इसलिए उसके बाबूजी ने उसकी पढ़ाई छुड़वा दी...महिला ने कहा
क्या???? मीरा के पैरों तले जमीन खिसक गई
उसकी इतनी हिम्मत कि वो ऐसे बोले अभी बताती हूँ कहती हुई दादी घर की ओर तेजी से लपकीं और मीरा उनके पीछे-पीछे...
फिर घर पर क्या-क्या हुआ मीरा के और मुन्नी के बाबूजी में कहासुनी मुन्नी का फिर से मुकर जाना और उसके रोने-धोने का ढोंग.....लेकिन इन सबका परिणाम यदि किसी को भुगतना पड़ा तो सिर्फ मीरा को....उसके पढ़ने का सपना फिर से अधूरा रह गया.....

  उधर मुन्नी ने अपनी पढ़ाई जारी रखी और बी०ए० कर लिया...मीरा ने निराश होकर इसे ही अपनी नियति मान लिया था कि इससे अधिक शिक्षा उसकी किस्मत में नहीं...पर कहते हैं न कि यदि इंसान किसी का बुरा नही करता तो भगवान उसके साथ भी बुरा नहीं होने देते यही हुआ मीरा के साथ....
कुछ समय बाद मीरा की शादी हो गई और उसने ससुराल में जाकरअपनी अधूरी पढ़ाई पूरी करने का निश्चय किया और....आज वो भी पोस्ट ग्रेजुएट है....उसे पता चला था कि मुन्नी ने एम०ए० कर लिया है, माँ ने ही बताया था, फिर आज उसकी ऐसी हालत क्यों है? मीरा बार-बार मुन्नी की इस दशा का कारण जानने के लिए उद्विग्न हो उठती....सुबह माँ से ही पूछूँगी ऐसा सोचकर सोने का प्रयास करने लगी.....उसे कब नींद आई पता नहीं

  बाहर चहल-पहल की आवाज सुनकर मीरा की नींद खुल गई...सुबह का उजाला हो चुका था, घना कोहरा था फिर भी माँ भाभी और पड़ोस की एक बुजुर्ग महिला खुले आसमान के नीचे चौक में अलाव पर हाथ सेंक रहे थे...मीरा भी आकर उनके पास ही बैठने लगी तो भाभी ने बैठने के लिए चौकी मीरा की ओर खिसका दी, मीरा उसपर बैठ गई.....
तो आज तुम चली जाओगी बिटिया..उस बुजुर्ग महिला ने (जिसे मीरा दादी कहती थी) कहा
हाँ दादी, आज ही की रिजर्वेशन है | मीरा ने कहा
कम से कम एक-आधे महीने के लिए तो आया करो बिटिया, सालों में तो आती हो और एक हफ्ता भी नहीं रुकतीं...
क्या करें दादी बच्चों की पढ़ाई का नुकसान होता है, कभी एक को छुट्टी नहीं मिल पाती तो कभी दूसरी को...अगली बार आऊँगी तो ज्यादा दिनों के लिए आऊँगी जी भर के खातिरदारी कर लेना... मीरा ने मुस्कुराते हुए कहा किंतु उसके दिमाग में अभी भी मुन्नी की तस्वीर घूम रही थी, वो जानना चाहती थी कि आखिर वो अपने माँ-बाप के घर में भी ऐसी दीन-हीन दशा में क्यों थी? किसी सम्पन्न परिवार की शिक्षित महिला तो बिल्कुल नही लग रही थी.....आखिर मीरा से रहा न गया और वो पूछ ही बैठी....
माँ कल हमने मुन्नी को देखा था, बड़ी बुरी दशा लग रही थी उसकी, मायके में भी ऐसी दशा में क्यों रहती है वो ? 
जो बोया है वही तो काटेगी...माँ कुछ बोलती इससे पहले दादी बोल पड़ीं
मतलब!!!! मीरा ने पूछा उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था|
मतलब ये बिटिया कि उसे अपनी बातों में सबको फँसाने की आदत हो गई थी और बेटी के प्यार में उसके माँ-बाप भी इतने अंधे हो गए थे कि बेटी जो भी करे उसे कभी नहीं समझाते थे, तुमने तो भुगत ही रखा है....दादी ने कहा
पर हुआ क्या ? मीरा की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी |
क्या होना था, जितनी पढ़ी-लिखी वो थी पति उतना नहीं था तो ये घर मे अपनी ही चलाती, उसकी बहन को किसी से बात करते भी देखती तो उसपर इल्जाम लगाती, पति से ये बर्दाश्त नहीं हुआ, एक दिन पीट दिया | माँ बोलीं
क्या! पीट दिया....फिर ? मीरा ने उत्सुकता से पूछा
फिर क्या इसने थाने में जाकर रिपोर्ट लिखा दी, पूरे परिवार को हवालात भिजवा दिया, वो लोग अच्छे इंसान थे इसलिए जैसे-तैसे गाँव के प्रधान ने बीच-बचाव करके उन लोगों को छुड़वाया| पर....
पर क्या माँ ? मीरा बड़ी रुचि से सुन रही थी, ये सब उसे एक कहानी सा प्रतीत हो रहा था |
पर वो लोग फिर इसे लेने नहीं आए और बाद में तलाक हो गया, तब से ये यहीं रहती है, भाई-भाभी से भी नही बनती, अब माँ-बाप बूढ़े हो गए हैं तो भाई-भाभी की ही मर्जी से रहना पड़ता है दशा खराब नहीं होगी तो क्या होगा | माँ ने जवाब दिया |
यदि मीरा किसी की ऐसी स्थिति देखती तो उसे बड़ा दुख होता पर मुन्नी के बारे में जानकर उसे न जाने क्यों तनिक भी दुख न हुआ |
सभी अपने-अपने काम में व्यस्त हो गए..मीरा वापस जाने की तैयारियों में व्यस्त हो गई, वह बहुत हल्का महसूस कर रही थी, न जाने क्यों आज उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वर्षों का बोझ उसके दिल से हट गया |
मम्मी...मम्मी...
ह हाँ क्या हुआ ? बेटी की आवाज सुन मीरा की तंद्रा भंग हो गई और वो चौंकते हुए भूत से वर्तमान में लौट आई
खाना खा लें...बड़ी बेटी ने पूछा
हाँ....चलो हाथ धोकर आते हैं, कहते हुए मीरा बर्थ से उतरी और रेल के डिब्बे में वॉशबेसिन की तरफ बढ़ गई | ट्रेन तेज रफ्तार से पेड़ों नदी नालों खेतों बगीचों को पीछे छोड़ते हुए निर्बाध अपनी मंजिल की ओर बढ़ती जा रही थी.....

साभार.....मालती मिश्रा

मंगलवार

चलो इंसान उगाते हैं...


प्रेम,सौहार्द्र के बीज रोप कर
मानवता के पौध लगाते हैं 
नफरत से सूखी बगिया में
कुछ प्रेम के फूल खिलाते हैं
चलो इंसान उगाते हैं ...

विलुप्त हो चुके परमार्थ को
हर इक जीव में जगाते हैं 
स्वार्थ के काले पन्नो में
इक उजली किरण सजाते हैं 
चलो इंसान उगाते हैं...

स्वार्थ साधना के इस युग में
सेवा का अलख जगाते हैं 
इंसां से इंसां का  नाता
सबको याद दिलाते हैं 
चलो इंसान उगाते हैं..

प्रतिस्पर्धा के खर-पतवार
बंजर भूमि बनाते हैं
प्रेम सहयोग की खाद डालकर
स्नेह के पौध उगाते हैं 
चलो इंसान उगाते हैं..

धन लोलुप्सा के मारे मानव
मन में शैतान जगाते हैं 
लालच की गठरी फेंक हम
चलो शैतान भगाते हैं
चलो इंसान उगाते हैं..

नर है नादान समझ सका न
मानवता में भगवान समाते हैं
जीत-हार की छोड़ के बातें
चलो भगवान जगाते हैं 
चलो इंसान उगाते हैं...

अज्ञान के घोर अंधकार में
ज्ञान की ज्योति जलाते हैं
शिक्षा पर समानता का हक
हम जन-जन तक पहुँचाते हैं
चलो इंसान उगाते हैं...

नारी जननी,भार्या, भगिनी है
इसका हम महत्व बताते हैं
तिरस्कार जो करते इनका
उन्हें ज्ञान का मार्ग दिखाते हैं
चलो इंसान बनाते हैं....

साभार....मालती मिश्रा

गुरुवार

दर्द


दर्द क्या है कोई पूछे उससे,
जो दर्द को दिल बसा बैठी|
वफादारी की चरम सीमा तक,
वफा को सांसों में समा बैठी|
वफा बाँटा वफा चाहा,
वफा के सागर में वो बहने वाली
एक बूँद वफा का पा न सकी|
अपने भ्रम को मिटाने की चाह में,
भ्रमजाल में वो फँसती ही गई|
आँखों का भ्रम है या दिल का है धोखा,
भ्रम के भँवर में डूब गई|
न नाव मिली न पतवार मिला,
माँझी नही न किनारा ही मिला|
दर्द के अथाह सागर में आज भी,
दूर से किनारे को तकती वो रही|
कब शाम ढले कब रात ढले,
कब उल्लास का सूर्य उदय होगा|
पर क्या रह लेगी इस दर्द बिना,
जिसने है उसे पनाह दिया|

साभार.... मालती मिश्रा

सोमवार

चाह


चाहा मैंने एक रोज ये,
कि मैं भी एक युग रचना कर पाऊँ|
जिस वसुधा पर पा जन्म प्रखर बनी,
सर्वस्व निछावर उसपर कर जाऊँ|
ज्ञान प्रयुक्त ज्योत्सना बन,
अज्ञान अंधेरे में भी मैं,
हर मार्ग प्रशस्त कर पाऊँ|
बन मधुर लहरिया सुर सरिता की,
जन जीवन मधुर बना पाऊँ|
बन धूप शीतमय जीवन में,
जन-जन को ऊष्णता दे पाऊँ|
ऊषा की लाली बन इस जग में,
मैं प्रेम वितान बना पाऊँ|
यह स्वप्न मेरा कि हर घर में, 
मैं ज्ञान की ज्योति जला जाऊँ....

साभार.....मालती मिश्रा