गुरुवार

नारी धर्म


नारी धर्म...
पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज गया जब नाम की घोषणा हुई "कीर्ति साहनी"। आगे की पंक्ति से उठकर कीर्ति मंच की ओर बढ़ी.....कद पाँच फुट तीन इंच, हल्के हरे रंग की प्लेन साड़ी सिल्वर कलर का पतला सा बार्डर और सिल्वर कलर की प्रिंटेड ब्लाउज, गले में साड़ी के बॉर्डर से मेल खाती सिंगल लड़ी की मोतियों की माला, कानों में सिंगल मोती के टॉप्स, बालों को बड़े ही करीने से पीछे लेकर ढीला सा जूड़ा बनाया हुआ था, दाँए हाथ में बड़े डायल की सिल्वर घड़ी और तर्जनी उँगली में पुखराज जड़ी अँगूठी, दूसरे हाथ में सिल्वर कलर का स्टोन जड़ा एक ही कड़ा और अनामिका उँगली में डायमंड की अँगूठी तथा तर्जनी में सोने की एक दूसर फैन्सी अँगूठी। मेकअप के नाम पर होंठों पर हल्के गुलाबी रंग की लिप्सटिक थी। गेहुँआ रंग तीखे नैन-नक्श, छरहरी काया कुल मिलाकर आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी थी वह, कोई भी उसे देखकर उसकी उम्र का अंदाजा नहीं लगा सकता था। बहुत ही नपे-तुले कदमों से वह मंच पर पहुँची। सम्मान समारोह कार्यक्रम के संयोजक तथा कॉलोनी के सेक्रेटरी मि०विनोद शर्मा ने उसका परिचय 'नारी स्वाभिमान की संरक्षिका' के रूप में करवाते हुए बताया कि यह वो महिला हैं जिन्होंने अपनी नौकरानी की मासूम बच्ची को अपने पति की नीयत का शिकार होने से न सिर्फ बचाया बल्कि अपने पति को पुलिस के हवाले भी किया और इसीलिए उनको सम्मान देने हेतु कॉलोनी की तरफ से उनके लिए यह सम्मान समारोह आयोजित किया गया है। फिर पुलिस कमिश्नर के हाथों कीर्ति ने प्रशस्ति पत्र ग्रहण किया। प्रशस्ति पत्र देते हुए कमिश्नर ने भी कीर्ति के द्वारा उठाए गए कदम की सराहना करते हुए कहा कि "यदि हर स्त्री यह फैसला कर ले कि वह न तो स्वयं पर अन्याय होने देगी और न ही किसी अन्य पर अन्याय होते देख चुप रहेगी तो निश्चय ही हमारा समाज स्त्रियों के लिए सुरक्षित होगा। मैं समझता हूँ कि बहुत से अपराधों की शुरुआत घरों के भीतर से ही होती है और यदि कीर्ति जी की तरह सभी चौकन्ने रहें तथा अपराध के खिलाफ आवाज उठाने का साहस दिखा सकें तो यह अपराध इनके पनपने से पहले ही समाप्त हो सकते हैं, मैं मानता हूँ कि किसी को बचाने के लिए ही सही किंतु अपने ही पति के खिलाफ खड़े हो जाने और उसे सजा दिलाने के लिए बहुत अधिक साहस की आवश्यकता है, यह निर्णय ही अपने-आप में किसी कठिन परीक्षा से कम दुश्वार नहीं। ऐसा करने से पहले हर स्त्री सोचेगी कि बाद में उसका क्या होगा उसके बच्चों का क्या होगा? समाज के लोग क्या कहेंगे, उनका बर्ताव कैसा होगा, स्वयं उसके परिवार वाले उसका साथ देंगे या नहीं? इस प्रकार के अनगिनत सवालों और भविष्य की दुश्वारियों की चिंता से गुजरना पड़ता है। अधिकतर लोग फेल हो जाते हैं और जो इक्का-दुक्का पास हो जाते हैं वो कीर्ति साहनी बन जाते हैं।" हॉल फिर तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। कीर्ति ने प्रशस्ति-पत्र लेकर मुख्य अतिथि तथा अन्य सभी आगंतुकों का धन्यवाद करते हुए कहा "मैं मानती हूँ कि यह मेरे लिए बहुत ही मुश्किल निर्णय था, परंतु जब सभी रिश्तों से ऊपर उठकर सोचा जाय कि हम सबसे पहले इंसान हैं, और इंसान को अपना कर्तव्य सदैव स्वार्थ से अलग रखना चाहिए तो फैसला लेना आसान हो जाता है, मेरी भी बेटियाँ हैं मैं जो कुछ भी अपनी बेटियों के लिए चाहती हूँ वही हर माँ अपनी बेटी के लिए चाहती है, बेटियों की माँ होते हुए मैं किसी अन्य की बेटी के साथ गलत होते कैसे देख सकती थी इसीलिए फैसला लेते वक्त मेरे समक्ष मेरी बेटियों का चेहरा था और मेरे लिए गलत सिर्फ गलत था, चाहे उस गलत को करने वाला कोई भी क्यों न हो।" 
समारोह समाप्त होने के उपरांत कीर्ति अपने घर आ गई थी, देर रात तक आस-पड़ोस वालों का आना-जाना लगा रहा। किशोर की गिरफ्तारी की खबर सुनकर जो रिश्तेदार पिछले सप्ताह आए थे वो दूसरे दिन ही चले गए थे लेकिन किशोर की बहन अभी आज शाम को सम्मान समारोह के बाद गईं। वह अभी तक इस आस में रुकी रहीं कि कीर्ति को समझा-बुझा कर केस वापस लेने के लिए मना लेंगीं परंतु वह सफल नहीं हो पाईं और आज शाम को असफलता और निराशा को गले लगाकर कोई शिकायत न होने का दिखावा करते हुए शिकायतों को दिल में छिपाए चली गईं।

कीर्ति की आँखों में नींद नहीं थी वह बार-बार करवट बदलती, न चाहते हुए भी वह मनहूस पल उसकी आँखों के समक्ष सजीव हो उठता...
कीर्ति उस दिन ऑफिस से एक घंटा जल्दी आ गई, कमला बाजार जाने के लिए मेन गेट खोल ही रही थी इसीलिए उसे डोरबेल बजाने की आवश्यकता नहीं पड़ी, उसने बरामदा पार करके ड्रॉइंग रूम में जैसे ही कदम रखा उसने देखा कि कमला की बेटी रज्जो जो बारह-तेरह साल की थी बदहवास सी भागती हुई उसके बेडरूम से निकली और बाहर चली गई शायद लान से होते हुए कोठी के पीछे। वह इतनी बदहवास दिखाई दे रही थी कि कीर्ति के बगल से भागते हुए भी उसका ध्यान उसकी ओर नहीं गया। कीर्ति का माथा ठनका...आखिर बात क्या है? वह इतनी डरी हुई क्यों है? वह जल्दी-जल्दी लंबे-लंबे डग भरती अपने बेडरूम में गई तो देखा किशोर लेटा हुआ था। उसे देखते ही चौंक गया, "अरे, तुम! आज इतनी जल्दी कैसे आ गईं?"
"वो छोड़िए मुझे ये बताइए कि अभी यहाँ क्या हुआ?" उसकी आवाज बेहद तल्ख और सर्द थी।
"यहाँ, क्या हुआ? कुछ भी तो नहीं।" किशोर ने अंजान बनते हुए कंधे उचकाकर कहा।
"कुछ भी नही? तो रज्जो क्यों अभी यहाँ से भागती हुई गई है?" अब उसकी आवाज तेज और तीखी हो चुकी थी, उसकी छठी इंद्री कह रही थी कि कुछ तो जरूर ऐसा हुआ है जो नहीं होना चाहिए था।
किशोर एक पल के लिए सन्न सा रह गया किंतु अगले ही पल संभलते हुए बोला- "अरे वोओओ मैंने उससे आधे घंटे पहले चाय माँगा था पर वो मैडम खेलने में भूल गईं इसीलिए मैंने बुलाकर डाँट दिया, बस।" 
"किशोर वो बच्ची है, उसकी माँ हमारे यहाँ काम करती है, वो बच्ची हमारी नौकरानी नहीं है ये आप कब समझोगे? मैं पहले भी कह चुकी हूँ कि उस बच्ची को कोई काम मत बताया करो और आज फिर कह रही हूँ।" कीर्ति ने गुस्से में कहा और कहकर वह स्वयं सोचने लगी कि गुस्से के भी कई रूप होते हैं न! अभी थोड़ी देर पहले जो गुस्सा था उस समय मन कर रहा था कि किशोर को छोड़ेगी नहीं वह उसे सबक सिखा कर ही रहेगी किंतु अगले ही पल गुस्सा तो है परंतु उसका रूप बदल गया,अहित करने की तो सोच नहीं बल्कि मन में यह ख्याल आ रहा है कि किशोर कब समझेंगे कि बच्चा तो बच्चा होता है किसी का भी हो। उसने अपना पर्स अलमारी में रखा और हाथ-मुँह धोने के लिए बाथरूम में चली गई। वॉश बेसिन पर नल चलाकर ज्यों ही उसने अंजलि में पानी भरकर अपने मुँह पर डाला कि अचानक भागती हुई रज्जो का भयभीत और तमतमाया चेहरा उसकी आँखों के समक्ष साकार हो उठा... क्या डाँट पड़ने से रज्जो इतनी भयभीत हो सकती है जितनी दिखाई पड़ रही थी? पर उसका तो चेहरा भय से लाल हो रहा था, न जाने क्यों कीर्ति की छठी इंद्री कुछ अधिक ही सक्रिय हो उठी थी उसके मस्तिष्क में अजीब-अजीब से खयाल आने लगे। 'क्या मुझे किशोर से पूछना चाहिए कि वो सच बोल रहे हैं या नहीं?' 
धत् बेवकूफ वो क्यों झूठ बोलेंगे? एक छोटी सी बात को लेकर अपने पति पर शक करती है, मत भूल तेरे पति की भी बेटियाँ हैं और रज्जो भी उनकी बेटी के बराबर ही है। कीर्ति ने अपने-आप को ही समझाया और मुँह-हाथ धोकर वॉशरूम से बाहर आ गई। "किशोर आज तुम ऑफिस से इतनी जल्दी कैसे आ गए?" कीर्ति ने तौलिए से हाथ पोछते हुए पूछा।
"कहाँ डार्लिंग, अभी आधा घंटा पहले ही तो आया हूँ, मीटिंग के लिए गया था मीटिंग खत्म करके घर आ गया , रात आठ बजे की फ्लाइट है बंगलोर जाना है।" किशोर ने कहा।
"बंगलोर! कितने दिनों के लिए और पहले क्यों नहीं बताया?" कीर्ति ने कहा।
"पहले कैसे बताता, आज ही डिसाइड हुआ है, बस दो दिन के लिए जा रहा हूँ।" किशोर ने कहते हुए हाथ में पकड़ी हुई फाइल साइड टेबल पर रख दिया और उठकर कमरे के एक कॉर्नर में रखे टेबल के पास रखी कुर्सी पर बैठ गया और लैपटॉप को ऑन करने लगा। कीर्ति समझ गई कि अब वह दो-तीन घंटे के लिए काम में व्यस्त हो गया, वह चुपचाप कमरे से बाहर आ गई और चाय बनाने के लिए रसोई की ओर चल दी तभी डोरबेल बजी, जरूर कमला होगी, सोचती हुई वह गेट खोलने के लिए उधर मुड़ी ही थी कि दौड़ती हुई रज्जो न जाने कहाँ से प्रकट हुई बिजली की फुर्ती से गेट खोल दिया और ज्यों ही कमला ने अपना पैर गेट के भीतर रखा रज्जो लिपट गई उससे और रोने लगी। "क्या हुआ, क्यों रो रही है कुछ बोलेगी भी?" कमला ने घबराकर एक साथ कई सवाल पूछ डाले। "अरे कुछ नहीं कमला वो किशोर ने आज इसे डाँट दिया बस इसीलिए डर गई है, मैंने समझा दिया है उन्हें, अब वो कभी नहीं डाँटेंगे, रोना बंद करो और जाओ जाकर पढ़ाई करो। कमला तुम जरा दो कप चाय बना दो!" कीर्ति ने रज्जो के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा और भीतर चली गई।
स्टडी रूम में बैठी कीर्ति मैगजीन में कुछ पढ़ रही थी तभी ट्रे में कमला चाय लेकर आई और चाय मेज पर रखकर खुद वहीं फर्श पर बैठ गई चुपचाप सिर झुकाकर।
"क्या बात है कमला, कुछ कहना चाहती हो?" कीर्ति ने जैसे उसके मन की बात समझ ली हो।
"दीदी आप मुझ अभागन को गाँव से यहाँ लाईं रोजगार दिया सिर पर छत और पेट भरने को खाना दिया मेरी बेटी को पढ़ा लिखा रही हैं, इज्जत की जिंदगी दी है, आप के अहसान मैं जिंदगी भर नहीं उतार पाऊँगी..."
"कहना क्या चाहती हो वो कहो ऐसा लग रहा है कि तुम कहना कुछ चाहती हो कह कुछ रही हो।" कीर्ति ने कमला के कंधे पर हाथ रखकर कहा।
"दीदी वो मैं कह रही थी कि.....कमला फिर चुप हो गई।
"क्या कमला, बोलती क्यों नही?" कीर्ति के मन में आशंकाओं ने जन्म लेना प्रारंभ कर दिया था वह बेचैन होकर बोल उठी।
"आप हमें गाँव भेज दीजिए।" कमला जल्दी से बोल गई। 
"क्या..... लेकिन क्यों?"
"बस दीदी शहर हमें रास नहीं आ रहा, गाँव में मेहनत मजदूरी करके पेट पाल लूँगी रज्जो को पढ़ा नहीं पाऊँगी कोई बात नहीं।" कमला ने वैसे ही सिर झुकाकर कहा।
कीर्ति को एकबार फिर रज्जो का भय से तमतमाया चेहरा याद आ गया, उसकी छठी इंद्री फिर सक्रिय हो गई।
"तुम जाओ रज्जो को लेकर आओ।" कमला ने सख्त आवाज में कहा।
"लेकिन दीदी वो......
"मैंने जो कहा वो करो!" कीर्ति ने सपाट लहजे में कहा।
कमला चुपचाप बाहर चली गई और पाँच मिनट बाद रज्जो के साथ वापस आई। 
कीर्ति ने रज्जो को कंधों से पकड़ कर अपनी कुर्सी पर बैठाया और बड़े प्यार से पूछा- "जब मैं आई थी तब तुम मेरे बेडरूम में से भागती हुई बाहर आ रही थीं, अब मुझे बिना डरे बताओ कि क्यों, क्या हुआ था जो तुम इतनी डरी हुई लग रही थी?"
रज्जो डर से कांप रही थी,वह कुछ नहीं बोली किंतु उसकी आँखों से आँसू गिरने लगे।
"बताओ बेटा, जबतक आप बताओगी नही मैं आपकी मदद कैसे करूँगी।" कीर्ति ने फिर कहा।
"अगर मैं कुछ कहूँगी तो साहब मेरी मम्मी को चोरी के इल्जाम में जेल में डाल देंगे।" रज्जो ने सिसकियाँ लेते हुए कहा।
"अरे! ऐसे कैसे, मैं हूँ न! कोई कुछ नहीं करेगा, तुम बताओ।" 
वो रोती रही कुछ भी बोल नहीं सकी तभी कमला ने उसकी फ्रॉक गर्दन के नीचे थोड़ा सरका कर कहा- "ये देखिए दीदी नाखून के निशान, ये साहब ने किया है, कहते हुए कमला फफक कर रो पड़ी।
कीर्ति को मानो मूर्छा सी आ गई, लड़खड़ाते हुए उसने कुर्सी का सहारा ले लिया फिर धीरे से वहीं पड़ी दूसरी कुर्सी पर बैठ गई। कुछ देर तक कमरे में बस सिसकियों की आवाज गूँजती रही। फिर एकाएक कीर्ति के चेहरे के भाव बदले और उसने कहा-  "रज्जो, सुनो बेटा अब जो मैं कह रही हूँ तुम वो करो बिना डरे, ध्यान रखना मैं तुम्हारे साथ हूँ तुम्हें डरने की जरूरत नहीं है।" 
"पर दीदी आप क्या करवाना चाहती हैं?" कमला ने विस्मय से पूछा।
"तुम साहब के पास जाओ और उनसे कहो कि मैं अपनी माँ को सब कुछ बता दूँगी।" कीर्ति ने बिना रुके कहा।
"नहीं मैं नहीं जाऊँगी, वो फिर से पकड़ लेंगे मुझे।" सहमकर रोते हुए रज्जो ने कहा।
"कुछ नहीं होगा, मैं कमरे के बाहर ही रहूँगी और ये फोन तुम अपने हाथ में पीठ के पीछे की ओर रखना।" कहते हुए उसने रिकॉर्डिंग पर करके फोन रज्जो के हाथ में पकड़ा दिया और कुछ देर तक उसे साहस बँधाती रही जब तक कि वह आश्वस्त नही हो गई कि रज्जो तैयार हो गई है उसके बताए अनुसार करने के लिए। कमला चुपचाप यह सब देख रही थी उसे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर कीर्ति करना क्या चाहती है। 
कीर्ति रज्जो को लेकर अपने बेडरूम तक गई और स्वयं बाहर ही गेट के पास एक ओर दीवार से सटकर खड़ी हो गई ताकि किशोर उसे देख न पाए और रज्जो को अंदर जाने का इशारा किया। रज्जो डरती हुई कमरे में गई, उसके पैर काँप रहे थे परंतु उसे पता था कि कीर्ति बाहर ही है इसलिए उसने हिम्मत नहीं छोड़ा, उसे देखते ही किशोर चौंक पड़ा.." त् त् तू तू यहाँ क्या कर रही है?" 
रज्जो ने साहस बटोरा और बोली- "मैं माँ को बता दूँगी जो आपने मेरे साथ किया।"
"क्या...तेरी इतनी हिम्मत..तू मुझे धमकी देने आई है! एक फोन करूँगा दोनों माँ बेटी जेल में सड़ोगी समझी, नहीं तो चुपचाप मुँह बंद रख।" किशोर ने भड़कते हुए कहा।
"मैं पुलिस को भी सच-सच बता दूँगी।" रज्जो पर कीर्ति की बातों का असर साफ दिखाई दे रहा था।
"अभी तो मैंने कुछ किया नहीं था सिर्फ हाथ लगाया था, रुक अभी बताता हूँ कहते हुए किशोर खड़ा हो गया, उसे खड़े होते देख रज्जो डरकर बाहर की ओर भागी और कीर्ति से जो कमरे के गेट पर आ खड़ी हुई थी, टकरा गई। उसने रज्जो को बाँहों में भर लिया मानो वह उसी की बेटी हो, फिर उसके हाथ से फोन ले लिया। किशोर उसे देखकर जड़ हो गया उसके पैर मानो जमीन से चिपक गए वह कुछ बोल न सका। तभी पुलिस इंस्पेक्टर दो हवलदारों के साथ आ पहुँचे। 
इंस्पेक्टर अरेस्ट कर लीजिए इन्हें, इन्होंने हमारी गैर मौजूदगी में इस बच्ची को फिजिकली हैरेस किया और अभी फिर उसे धमकाकर मेंटली हैरेस कर रहे हैं। किशोर और कमला दोनों ही अवाक् होकर कीर्ति को देख रहे थे, कमला कीर्ति के पैरों पर गिर पड़ी, कीर्ति ने उसे उठाया और चुपचाप उसके सिर पर हाथ फेरती रही किंतु कोई भी नहीं था जो कीर्ति के सिर पर हाथ रखकर कहता कि "चिंता की कोई बात नहीं मैं हूँ तुम्हारे साथ।" 
अचानक कमरे के गेट पर उसे कोई साया खड़ा दिखाई दिया.. "कौन..कौन हैं वहाँ?" कहते हुए उसने साइड टेबल पर रखा लैंप ऑन कर दिया। 
"माँ मैं हूँ...रिंकी" कहते हुए वह कमरे के भीतर आ गई।
"तुम यहाँ क्या कर रही हो, सोई क्यों नहीं अभी तक?" उसने शिकायती लहजे में कहा।
"आप भी तो नहीं सोईं माँ, नींद नहीं आ रही न?" पिंकी ने कहा।
"हाँ बेटा नहीं आ रही पर कोई बात नहीं मैं सो जाऊँगी, तुम भी जाकर सो जाओ।" कीर्ति ने कहा।
"हमें भी नहीं आ रही, पिंकी भी जाग रही है...हम दोनों यहीं आकर आप के पास सो जाएँ?" रिंकी ने पूछा।
"ठीक है जाओ उसे भी बुुला लो।" 
दोनों बेटियाँ आकर उसके पास ही सो गईं। कीर्ति की आँखों में नींद का नामोनिशान नहीं था उसकी आँखों के सामने कभी रज्जो की घबराई हुई आँखें, कभी किशोर की नीच हरकत और रज्जो को धमकी देती सूरत घूमने लगती, कैसे-कैसे लोग होते हैं दुनिया में, शराफत के नकाब के पीछे किसका चेहरा कितना भयावह और घिनौना है यह सालों साथ रहने वाला व्यक्ति भी नहीं जान सकता। यह पुरुष जाति ही ऐसी क्यों होती है...तभी उसके मस्तिष्क में एक और चेहरा घूम गया पुरुष ही क्यों औरत भी।  इसप्रकार के गिरे हुए कृत्य सिर्फ पुरुष ही नही औरत भी तो करती है कभी रिश्ते के दबाव में, कभी हृदयहीन हो कर अपना कोई स्वार्थ सिद्ध करने के लिए औरत ही मासूम लड़कियों का शोषण होते देख चुप रहती है या शोषक की सहभागी बनती है। कीर्ति के मस्तिष्क में उसके अपने बचपन की एक-एक तस्वीर मानो चलचित्र की  मानिंद घूमने लगीं………
वह दस-ग्यारह साल की होगी तभी उसके इकलौते मामा जी का देहांत हो गया और बूढ़े नाना-नानी की देखभाल के लिए उसकी मम्मी को गाँव में ही रहना पड़ा, पापा की शहर में सरकारी नौकरी थी इसलिए वो शहर में उसे और उसके भाइयों को भी ले गए ताकि उनकी शिक्षा में कोई बाधा न आए। माँ हर दो-तीन महीने में उनके पास आ जाया करती थीं और दो-तीन महीने उनके पास रहतीं। यही सिलसिला सदा चलता रहा। उनके पड़ोस में एक परिवार रहता था जिसमें दादा-दादी तथा उनके बेटे-बहू और पोतियाँ थीं, वो लोग कीर्ति और उसके भाइयों को बहुत प्यार करते तथा कीर्ति के पापा भी उनका बहुत आदर करते व उनके बेटे को छोटे भाई के समान मानते थे। कीर्ति उन्हें चाचा-चाची कहती और उनकी बेटियों को अपनी छोटी बहनों की तरह मानती थी। उसका अधिकतर समय चाची के पास उनके ही घर में खेलते-कूदते बीतता। पढ़ाई में कोई कठिनाई आती तो चाचा के पास पहुँच जाती पूछने और वो भी उसे अपनी ही बेटी के समान पढ़ाते। धीरे-धीरे वह जब बड़ी होने लगी तो चाची उससे इस प्रकार के मजाक करतीं जो उसे कुछ अजीब लगता परंतु वह उसे ये कहकर बहला देतीं कि "हर लड़की को यह सब सीखना होता है किसी की भाभियाँ सिखाती हैं तो किसी की चाचियाँ"  उसे लगता कि वो सच कह रही होंगीं। उसके घर के ही दूसरी ओर एक और परिवार रहता था उनकी भी दो बेटियाँ थीं, बड़ी बेटी सीमा कीर्ति से दो-तीन साल बड़ी थी और वो भी उन्हें कीर्ति की तरह चाचा-चाची कहती थी। चाची ने एक दिन उसे बताया कि चाचा वयस्कों के नावेल पढ़ते हैं और सीमा को पढ़ने को देते हैं, चाची उसे चाचा द्वारा लाए गए साधारण  सामाजिक उपन्यास पढ़ने को दिया करतीं और वह पढ़ने भी लगी थी, उस दिन उन्होंने उसे भी वही उपन्यास पढ़ने को दिया। उसने कुछ पन्ने ही पढ़े होंगे कि उसे पता चल गया कि यह उपन्यास बच्चों के पढ़ने लायक नहीं, तभी उसने उसे वापस कर दिया था। चाची ने पूछा- "तुमने पढ़ लिया?" 
"ह् हाँ," उसने कहा।
"कैसा लगा?" 
"गंदी किताब है।" उसने मुँह बनाते हुए कहा।
उसके कंधों पर दोनों हाथ रख कर घुटनों पर बैठते हुए चाची ने कहा- "अरे पगली जिसे तू गंगा बोल रही है वो जीवन का एक जरूरी हिस्सा है, सबके लिए जरूरी है।"
"क्यों जरूरी है? मैं तो ऐसा नहीं मानती।" उसने तुनक कर कहा।
"अच्छा सच बता क्या तुझे पढ़कर अच्छा नहीं लगा?" उन्होंने पूछा।
वह सोचने लगी कि क्या जवाब दे, उसने तो पढ़ी ही नहीं पर वह बताना नहीं चाहती थी कि उसने नहीं पढ़ी अन्यथा वह पढ़ने के लिए जोर डालतीं इसलिए उसने कह दिया- "नहीं, मुझे तो बेहद फूहड़ और गंदी लगी।" 
"तू पता नहीं किस मिट्टी की बनी है वो सीमा का देख उसे तो ऐसा चस्का लगा कि उसने कल चाचा से संबंध भी बना लिया।" कीर्ति अवाक् रह गई, वह अब इतनी भी छोटी नहीं थी लगभग तेरह साल की थी सबकुछ नहीं तो भी इन्हीं चाची की वजह से काफी कुछ समझती थी। उसने पसीना पोछते हुए कहा- "क्या ये सच है?"
"ये ले मैं झूठ क्यों बोलूँगी, तुझे विश्वास नही न! तो कल दोपहर को आ जाना मैं तुझे दिखाऊँगी।"
वह चुपचाप यंत्रवत् सी अपने घर में चली गई और शाम से रात और रात से सुबह हो गई वह चाची के पास नही गई। दोपहर को स्कूल से आकर भी वह वहाँ नहीं गई तभी करीब तीन बजे चाची भागती हुई आईं और उसका हाथ पकड़ कर उसे अपने घर में ले जाकर अपने बेडरूम के बाहर खड़ी कर दिया, बेडरूम का दरवाजा अंदर से बंद था। "क्या हुआ?" उसने पूछा
चाची ने फुसफुसाते हुए कहा- "सीमा और चाचा अंदर हैं।" 
उसे समझ नहीं आया कि वह क्या कहे, वह उल्टे पाँव भागती हुई अपने घर आ गई। उसके मस्तिष्क में सवालों की आँधी चल रही थी, काश माँ साथ होतीं तो मैं उन्हें बता पाती। वह अपने आप को असहाय महसूस कर रही थी। पढ़ाई में भी उसका मन नहीं लग रहा था, एक ही दिन में  उसे ऐसा लग रहा था कि उसने वर्षों का अंतराल पार कर लिया हो, वह जो माँ के साथ न होते हुए भी चाची को माँ समान मानती और हर बात उनसे साझा करती थी आज उसे लगा कि वह अब अकेली और पापा के बाद अपने घर में बड़ी है, उसके भाई उससे छोटे हैं उन्हें चाचा-चाची से ज्यादा नजदीकी नहीं बढ़ाने देगी। वह रातों-रात जिम्मेदार हो गई थी। उसदिन और दूसरे दिन शाम तक वह फिर चाची के पास नही गई तो चाची ने अपना बेटी को भेजकर उसे बुलवाया। "क्या हुआ कीर्ति, तू कल से आई नहीं?" उसके आते ही चाची ने कहा।
"कुछ नहीं।" उसने कहा।
"कुछ तो है, तू बता नहीं रही।" उन्होंने कहा।
"नहीं कुछ नहीं।" उसने बात टालने के लिए कहा।
"अच्छा सुन चाचा एक और उपन्यास लाए हैं अंदर रखी है जा ले ले।" उन्होंने कहा।
उसने उनके बेडरूम के आगे से गुजर तो हुए देख लिया था कि चाचा अंदर लेटे हैं, अब उसे चाचा में शैतान दिखाई देने लगा था, वह डरने लगी थी। उसने मना करते हुए कहा- "नहीं चाची अब मैं कोई उपन्यास नहीं पढूँगी, मैंने बहुत सोचा मुझे लगा कि मैं जितनी देर उपन्यास पढ़ती हूँ वही समय मैं अपने कोर्स की किताबें पढूँगी तो मेरे मार्क्स और अच्छे आएँगे। और आप न मुझे ये सब बातें न ही सिखाया करो तो अच्छा है।"
"मैं तो तेरा भला ही कर रही हूँ।" उन्होंने कहा।
बीच में ही बात काटकर वह बोल पड़ी-"चाची आपके पति किसी लड़की के साथ ऐसा करते हैं तो आपको बुरा नहीं लगता?" 
"मुझे क्यों बुरा लगेगा? मेरे पीछे करें इससे अच्छा है मेरे सामने कर लें जो करना हो।" उन्होंने कहा
"अच्छा अगर ये बातें मेरे भले की हैं तो यही भले की बातें आप अपनी बेटियों को भी समझाती हो।" उसने पूछा।
चाची को क्रोध आ गया, क्रोधित होकर वह बोलीं-"तेरा दिमाग खराब है वो अभी छोटी हैं और मेरी बेटियाँ हैं,भला माँ ऐसा कैसे बता सकती है अपनी बेटी को, तुम्हारी माँ भी तो नहीं बता सकती।"
"तो मैं बता सकती हूँ उन्हें?" उसने कहा।
"बिल्कुल नहीं, तुम्हें नहीं सीखना तो न सही मेरी बेटियों से इस बारे में कुछ मत कहना।" उन्होंने कहा।
"नहीं कहूँगी चाची पर अब आज के बाद आप भी मुझे ऐसी बातें मत करना।" कहती हुई वह वापस आ गई। उस दिन से वह चाचा से कतराती थी, पढ़ाई से संबंधित कुछ भी नहीं पूछती, वह सबकुछ माँ को बताना चाहती थी पर जब माँ आईं तो चाहते हुए भी वह कुछ नहीं कह सकी थी, शायद दूर रहने के कारण माँ-बेटी के बीच कोई अनदेखी रेखा खिंच गई थी जिसके कारण वह अपने दिल की बातें उनसे साझा नहीं कर पाती थी।  बहुत छोटी थी वह कुल तेरह-चौदह साल की परंतु अच्छे बुरे की पहचान हो गई थी, अपने माँ-पापा का चाचा-चाची पर अंधा विश्वास देखकर उसका मन करता कि उन्हें सब बता दे पर चाहते हुए भी वह कभी बता नहीं पाई। वह उनके रिश्ते भी खराब नहीं करना चाहती थी इसलिए आना-जाना तो कम कर दिया पर पूरी तरह से बोलना बंद नहीं किया। अचानक अलार्म की आवाज से उसकी तंद्रा भंग हो गई उसने अलार्म बंद किया पर उठी नहीं, लेटी रही इस उम्मीद में कि शायद अभी भी नींद आ जाए तो कुछ देर सो लेगी। 
भगवान तेरा लाख-लाख धन्यवाद कि तूने मुझे चाची जैसा नहीं बनने दिया, आज मैंने एक स्त्री धर्म निभाकर स्वयं को स्वयं की नजरों में गिरने से बचा लिया। उसने मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद किया और सोने का प्रयास करने लगी।
मालती मिश्रा
चित्र...साभार गूगल से

5 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. अमृता जी आभार, ब्लॉग पर हार्दिक स्वागत है आपका।

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    2. अमृता जी आभार, ब्लॉग पर हार्दिक स्वागत है आपका।

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  2. कीर्ति जैसी नारी समाज में हों तो नरपिशाच पनपने न पायें
    बहुत ही अच्छा नारी धर्म......
    वाह!!
    http://eknayisochblog.blogspot.in

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  3. कीर्ति जैसी नारी समाज में हों तो नरपिशाच पनपने न पायें
    बहुत ही अच्छा नारी धर्म......
    वाह!!
    http://eknayisochblog.blogspot.in

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