शुक्रवार

फ़र्ज


चारो ओर घना अंधेरा फैल चुका था हाथ को हाध सुझाई नही दे रहे थे। ऐसे में चारों ओर भयानक सन्नाटा पसरा था। बादलों की गड़गड़ाहट से आत्मा थर्रा जाती। रह-रह कर बिजली यूँ कड़कड़ाती मानो अभी धरती पर गिर कर सब कुछ भस्म कर देगी। बूँदा-बाँदी शुरू हो चुकी थी। पगडंडी के दोनो ओर खड़े वृक्ष हवा के तेज थपेड़ों से इस प्रकार जूझ रहे थे मानो अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हों। ऐसे भयावह मौसम में एक साया हवा के तेज झोंकों से लड़ता खुद को बचाता लड़खड़ाता हुआ आगे को बढ़ता जा रहा था। वहाँ से दूर-दूर तक कोई बस्ती नजर नहीं आ रही थी, या शायद अंधेरे की अधिकता और खराब मौसम के कारण दिखाई नही दे रही थी। वह साया लड़खड़ाता, हवा के थपेड़ों से जूझता हुआ आगे बढ़ता जा रहा था दूर कहीं से कुत्ते के भौंकने की आवाज आई, वह ठिठक गया और अपने दाईं ओर गर्दन घुमा कर देखा, काफी दूर रोशनी नजर आई। अंधेरे में भी ऐसा लगा मानो उसके चेहरे पर आशा की किरण चमकी हो। शायद वहाँ कोई बस्ती है, इसी उम्मीद में वह दाईं ओर जाने वाले रास्ते पर मुड़ गया। यह एक संकरा सा रास्ता था, रास्ते के दोनों ओर ऊँची-ऊँची झाड़ियाँ थीं जिससे अंधेरे की भयावहता और अधिक बढ़ गई थी फिर भी वह साया बिना ठिठके बिना एक भी पल गँवाए तेज हवा से जूझता हुआ आगे और आगे बढ़ता ही जा रहा था। अंधेरे में कभी ठोकर लगती कभी किसी गड्ढे में पैर पड़ता वह लड़खड़ाता और फिर संभलता और आगे बढ़ता। बिजली चमकती तो एक पल के लिए आगे का रास्ता दिख जाता और वह राह के गड्ढों तथा जगह-जगह उभरे टीलेनुमा जमीन देख लेता और आगे संभलकर चलता। अचानक बिजली की गड़गड़ाहट से मानो उसका पूरा वज़ूद हिलकर रह गया...पर वो क्या था!
बिजली चमकने से हुई पल भर की रोशनी में कुछ कदमों की दूरी पर कोई मानवाकृति दिखाई दी थी! श्शायद कोई स्त्री!
उसकी गति में और तेजी आ गई, मन में सहायता पाने की उम्मीद जाग उठी, वर्षा तेज हो चुकी थी, कुछ ही पलों में वह उस मानवाकृति के समीप पहुँच चुका था। वह अंधेरे में भी किसी कुशल शिल्पकार की कुशलता से तराशी हुई भीगी हुई प्रतिमा लग रही थी, बारिश की तेज बूँदों से भीगी साड़ी उसके  गठीले अंगों को छिपा पाने में असमर्थ थी। अपनी दुश्कर यात्रा की थकान और मुश्किलों को कुछ पलों के लिए भूल कर वह उस सौंदर्य में खो सा गया, अंधेरे में उसकी छवि को पहचानने की कोशिश कर रहा था कि तभी फिर से  बिजली कड़की और एक पल के लिए संपूर्ण वातावरण रोशनी में नहा गया। उस एक पल की रोशनी में उसे उस स्त्री का चेहरा जाना पहचाना सा लगा।
"कौन हैं आप, ऐसे मौसम में यहाँ क्या कर रही हैं?" उसने कहा।
"मैं तो अपने गाँव के पास ही हूँ बाबू जी, आप बताओ आप कौन हो, कहाँ जाना है आपको?" उस स्त्री ने कहा।
"मुझे माधव पुर जाना है, पर खराब मौसम के कारण शायद मैं रास्ता भटक गया हूँ, अब तो यहीं कहीं रात भर के लिए आश्रय की तलाश है।" राही ने कहा।
"बाबू आप रास्ता नहीं भूले हो बस अंधेरे के कारण आपको समझ नहीं आ रहा, वो दूर जो पेड़ों का झुरमुट नजर आ रहा है वही माधव पुर है।" स्त्री ने कहा।
"धन्यवाद आपका, पर ऐसे मौसम में आप यहाँ क्या कर रही हैं, डर नहीं लगता आपको?" अजनबी राही ने पूछा।
"अरे साहब अगर मैं डर जाती तो आपको रास्ता कौन बताता?" उसने मुस्कराते हुए मजाकिया लहजे में ऐसे कहा जैसे उस अजनबी से उसकी पुरानी पहचान हो।
"ओह, अब समझा, तुम्हें पता था कि मैं आनेवाला हूँ , इसलिए तुम मुझे राह दिखाने आई हो।" अजनबी भी बातों का आनंद लेने लगा।
"नही, मेरी बकरी को पता था, इसीलिए वो इधर ही आकर कहीं छिप गई और मैं उसे ढूँढ़ने आई तो आप मिल गए।" उस लड़की ने कहा।

अजनबी ने देखा कि वो दोनों गाँव के करीब आ चुके थे, मौसम भी पहले की अपेक्षा शांत था, हल्की-हल्की बूँदा-बाँदी अभी भी पड़ रही थी पर तेजी से चलने वाली आँधी और बिजली की गड़गड़ाहट बंद हो चुकी थी।
"आपको ठाकुर साहब के घर जाना है न?" उसने बात आगे पूरी करते हुए पूछा।
"हाँ, पर तुम कैसे..।"
"सभी जानते  हैं कि आज आप आने वाले हो तो मैंने अनुमान लगाया।" लड़की ने कहा।
"पर आपने अपना परिचय नहीं दिया?
"बाबू साहब मेरा क्या परिचय, मैं कोई आपकी तरह बड़े घर से तो हूँ नहीं, जो मन करे बुला लो..ए लड़की, ए पंखी या कुछ भी, मैं बुरा नहीं मानूँगी और हाँ ! गाँव के बाहर वो जो अकेला पेड़ दिख रहा है न, वहीं मेरा घर है।" लड़की ने गाँव के बाहर दिखाई देने वाले एक बड़े से पेड़ की ओर इशारा किया।
'पंखी' अजनबी बुदबुदाया, उसे यह शब्द जाना पहचाना सा लग रहा था।
"आप सीधे जाकर दाएँ मुड़ जाना, वहीं से आपको अपनी सफेद कोठी दिखाई पड़ जाएगी।" युवती अपनी ही रौ में बात पूरी होने तक बोलती रही और अचानक एक मोड़ पर मुड़ गई।

"धन्यवाद, अब इतना रास्ता बताया है तो आगे भी बताती जाओ।"
अजनबी ने बाईं ओर मुड़कर तेजी से जाती हुई युवती को पुकार कर तेज आवाज में कहा पर तब तक वह अंधेरे में लुप्त हो चुकी थी।

'पंखी' यह नाम मैंने कहाँ सुना है, वह लड़की भी...ऐसा लग रहा था कि मैंने उसे पहले भी कहीं देखा है, पर कब? कहाँ? हंह यूँ ही, मैं तो सालों बाद यहाँ आया हूँ तो भला मैंने कब देखा होगा! और इतने घने अंधेरे में मुझे निःसंदेह भ्रम हुआ है.... वह जितनी तेजी से कोठी की ओर बढ़ रहा था उसके मस्तिष्क में उतनी ही तेजी से उथल-पुथल बढ़ती जा रही थी। इसी जद्दोज़हद में वह कोठी पर पहुँच गया।
बड़े से गेट को ढकेलकर वह अंदर आया और लंबा सा लॉन पार करते हुए बरामदे में पहुँच गया, बरामदे में कोई नहीं था लालटेन की कमजोर लौ खराब मौसम के गहन तिमिर से लड़ने की पुरजोर कोशिश करते हुए काफी हद तक उसको बेअसर करने में सफल थी परंतु मौसम की खराबी के कारण अंधकार अब भी हावी था। उसने अपनी पीठ पर टाँगा हुआ बैग जमीन पर जोर से रखा। तभी बरामदे के भीतर वाला गेट खुला और एक छड़ी के साथ ही एक पुरुष का पैर नजर आया, भीतर की तरफ घुप्प अँधियारा होने पर भी धोती का उजलापन चमक रहा था।
कौन है? सन्नाटे को चीरती हुई रौबदार आवाज गूँजी और साथ ही चमकदार सफेद धोती-कुर्ता पहने तंदरुस्त और लंबे-चौड़े कद-काठी के एक बुजुर्ग प्रकट हुए।
आगंतुक युवक ने आगे बढ़कर पैर छूते हुए कहा- "प्रणाम ताऊ जी।"
"अरे सुहास!"....
"अरे सुनती हो कान्ता की माँ देखो अपना सुहास आ गया।"
ठाकुर राघवेंद्र सिंह की बूढ़ी हड्डियों में मानों स्फूर्ति का संचार हो गया, वो खुशी से लगभग चिल्लाते हुए अपनी पत्नी को पुकारने लगे।  भीतर से दौड़ती हुई ठाकुर साहब की पत्नी आईं और पीछे-पीछे एक और महिला। थोड़ी देर पहले निर्जीव सी पड़ी हवेली में मानों उत्सव जैसा माहौल हो गया, खराब मौसम होने के कारण बिजली चली गई थी पर अब ठाकुर साहब की हवेली को देखकर पता ही नहीं चल रहा था कि बिजली नहीं आ रही। जनरेटर की मदद से पूरी हवेली दूधिया रोशनी में नहा गई थी। पूरे गाँव को पता चल चुका था कि छोटे ठाकुर आ गए हैं। लोगों का आना-जाना शुरू हो गया था, ऐसा प्रतीत हो रहा था कि किसी एक घर का नहीं पूरे गाँव का बेटा आया हो। देखते ही देखते मिलने-जुलने वालों की भीड़ सी लग गई।
वह तो सुबह आने वाला था तो क्यों नहीं आया?
गाड़ी लेट थी तो सूचित क्यों नही किया?
अगर सूचित करता तो कोई न कोई स्टेशन से लेने चला जाता।
सभी के पास कोई न कोई सवाल था। सुहास सभी के सवालों के जवाब देते हुए सोच रहा था कि कितने अच्छे होते हैं गाँव के लोग! लगभग पूरे गाँव को उसके समय से न पहुँचने की चिंता थी; वह इतने सालों तक इन सबके प्यार से वंचित रहा पर अब वह अपनी पढ़ाई पूरी करके हमेशा के लिए आ गया है। पर वो लड़की कौन थी? क्या वो दुबारा उससे मिल पाएगा? उसके मस्तिष्क से वह अनदेखी छवि मिटती ही न थी।
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सुहास को आए हुए दो दिन हो चुके थे, ताऊ जी पिछले दो दिनों से उसे अपने आमों के बाग अमरूदों के बाग और दूर-दूर तक फैले अंतहीन से प्रतीत होते खेत दिखा रहे थे, परंतु अभी तक अपनी आधी प्रॉपर्टी का भी अवलोकन न करवा सके थे। सांझ की लालिमा अपने पूर्ण यौवन पर थी अमराई की शिखाओं को मानों स्वर्ण मिले सिंदूरी रंग से नहला दिया हो, दूर क्षितिज में विशालकाय लाल गेंद की भाँति सूरज मानों आधा धरती में समा चुका था। उसकी लालिमा ने मानों अपनी सारी लाली नदी  में घोल दी और इस समय ऐसा प्रतीत हो रहा था कि नदी में सुनहरी रक्तिम आभा लहरा रही है। प्रकृति की ऐसी अनुपम छटा देखते हुए नदी के किनारे पर एक टीले नुमा जगह पर बैठा सुहास नदी में कंकड़ फेंक रहा था। आसमान में पंछियों के दल एक के बाद एक पूरा दिन भटकने के बाद अपने बच्चों के पास अपने-अपने गंतव्य की ओर जा रहे थे। अपने मवेशियों को हाँकते हुए चरवाहे गाँव की ओर चले जा रहे थे, कुछ किसान कांधे पर हल रखे और बैलों की जोड़ियों को हाँकते हुए गाँव की ओर जा रहे थे। जानवरों के खुरों से उड़ते हुए धूल के गुबार को देखकर सुहास सोचने लगा कि कितनी स्वच्छ और पावन लगती है ये गोधूल, शहरों तक आते-आते यही प्रदूषित गंदी और अपावन कीचड़ बन जाती है।
"प्रकृति का ऐसा सौंदर्य पहले कभी देखा है छोटे ठाकुर?"
अचानक इस जानी-पहचानी आवाज को सुनकर सुहास उछल पड़ा। सामने सुंदरता की जीती-जागती मूर्ति खड़ी थी। पतली छरहरी सी काया, दूधिया गोरा रंग मानो दूध में चुटकी भर सिंदूर मिला दिया हो, पतली सुराहीदार गर्दन, हिरनी की तरह बड़ी-बड़ी सुंदर और चंचल आँखें, पतले गुलाबी होंठ। बिना साज-सिंगार के ही इतनी सुंदर जैसे भगवान ने खुद ही सिंगार करके भेजा हो।
"पंखी तुम!" सुहास बेसुध सा बुदबुदाया।
"अरे वाह छोटे ठाकुर! आपने तो मुझे अंधेरे में ही देखा था, फिर भी पहचान लिया!"
"कानों को आवाज पहचानने के लिए रोशनी की जरूरत नहीं होती पंखी, पर तुमने तो अभी मेरी आवाज सुने बिना ही मुझे और मेरे मस्तिष्क में चल रहे विचार को भी पहचान लिया।"
"मैं भी कह सकती हूँ छोटे ठाकुर कि दिल को दिल की आवाज पहचानने के लिए देखने-सुनने  की जरूरत नहीं होती।"
"तुम्हारी हाजिर जवाबी का कायल तो मैं उसी समय हो गया जब पहली बार मिला था।"
"सच्ची! तो अब मेरे भी कायल हो जाइए।" उसने बड़ी नज़ाकत से कहा।
क्या! सुहास अचम्भित सा उसका मुँह ताकने लगा।"
"अरे छोटे ठाकुर! आप मजाक भी नहीं समझते!" वह हँसती हुई बोली।
"अच्छा, ये मजाक था! मैं तो सोच रहा था कि और कितना कायल बनूँ।" सुहास के ऐसा बोलते ही दोनों हँस पड़े।
"आप तो अपनी आवभगत करवाने में ऐसे मशरूफ़ हुए कि मुझे भूल ही गए।" पंखी ने शिकायती लहज़े में कहा।
"तुम कोई भूलने की चीज हो? तुम्हें जो एकबार मिल ले वो ताउम्र नहीं भूल सकता पंखी।" सुहास के मुँह से बरबस ही निकला।
"मुझे खुशी हुई छोटे ठाकुर कि कोई तो मुझे याद रखने के काबिल समझता है।"
पंखी की आवाज उसको स्वयं भी बड़ी दूर से आती हुई प्रतीत हुई।
सूर्यदेव पूर्णतया क्षितिज में समा चुके थे, अब अंधेरा अपने साम्राज्य का विस्तार करने लगा था, चिड़ियों का कलरव समाप्त हो चुका था नदी की मचलती लहरें भी मानो खामोश हो गई थीं।
"अच्छा पंखी अंधेरा हो गया है मेरे खयाल से अब हमें चलना चाहिए।" सुहास ने कहा।
"ठीक है साहब जैसा आपका खयाल"
पंखी ने मजाकिया लहजे में कहा।
"चलो तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ देता हूँ।" सुहास ने कहा।
"क्यों, मैं रास्ता थोड़ी ना भूल जाऊँगी।" पंखी ने कहा।
"अच्छा भई, नहीं छोड़ता, अब खुश हो जाओ और घर जाओ।"
ठीक है छोटे ठाकुर, कल यहीं आपका इंतजार करूँगी।" पंखी ने जाते-जाते कहा।
सुहास से कुछ कहते न बना वह उसे जाते हुए तब तक देखता रहा जब तब वह आँखों से ओझल नहीं हो गई। फिर वह थके-थके कदमों से अपनी हवेली की ओर चल दिया।

"आज शाम को किधर निकल गए थे सुहास?" ताऊ जी ने अपनी छड़ी नीचे जमीन पर गिराकर लॉन में बिछी आराम कुर्सी पर लगभग लेटते हुए पूछा।
सुहास ऐसे चौंक गया जैसे किसी ने उसे नींद से जगा दिया हो, वह आसमान में चमकते उस पूनम के चाँद को देखते हुए मन ही मन उसकी सुंदरता से पंखी की सुंदरता की तुलना कर रहा था जो अपने पूरे शबाब के साथ अपनी चमक से अनगिनत तारों की चमक को बेअसर कर रहा था।  वह जानने की कोशिश कर रहा था कि आखिर कौन सा आकर्षण है जो उसे बरबस पंखी की ओर खींचता है, वह कितनी भी कोशिश करे पर दिलो-दिमाग से उसकी छवि जाती ही नहीं। पर ताऊ जी की आवाज ने उसकी तंद्रा भंग कर दी।
"जी ताऊ जी मैं वो नदी की तरफ निकल गया था।"
"अच्छा है, सालों बाद आए हो, अपने गाँव को अच्छी तरह से देख समझ लो, अब तुम्हें ही ये विरासत संभालनी है। मैं तो बूढ़ा हो गया अब मुझसे नहीं संभलता ये सब।" ठाकुर साहब ने लंबी सी सांस छोड़ते हुए कहा।
"आप क्यों चिंता करते हैं ताऊ जी, अब मैं आ गया हूँ न, आप बस मुझे गाइड करते रहिए।" सुहास ने कहा।
"छोटी मालकिन आप दोनों को खाने के लिए बुला रही हैं।" ललिया (नौकरानी) ने आकर कहा।
"हाँ आते हैं।" कहते हुए ठाकुर साहब अपनी छड़ी उठाने लगे।
भोजन करते समय भी सुहास के मस्तिष्क में बस पंखी की छवि तैर रही थी, वह जानना चाहता था कि आखिर वह कौन है? कहाँ रहती है? परंतु वह किसी से पूछने का साहस नहीं जुटा पाया।

सुहास का सपना था कि उसका गाँव तरक्की करे वह अपने गाँव को एक आदर्श गाँव बनाना चाहता था, जाहिर है धन-संसाधन, ज्ञान और हौसले की कमी न थी बस कमी थी तो गाँव के बारे में जानकारी की, इसीलिए वह सवेरे-सवेरे ही गाँव, खेत-खलिहान और आसपास की जानकारी एकत्र करने निकल पड़ता। पहले दो-दिन बड़े ठाकुर खुद साथ में उसे अपने खेतों-खलिहानों से परिचित करवाते रहे परंतु वृद्धावस्था के कारण वह पूरा दिन घूमने में स्वयं को असमर्थ पाते इसीलिए तीसरे दिन से नौकर को साथ भेजने लगे; दो दिन के उपरांत सुहास अकेला ही निकल जाया करता क्योंकि वह नौकर के साद खुद को बंधन में महसूस करता और साथ ही उसे यह भय भी बना रहता कि कहीं उसके रहते पंखी उसे मिल गई तो शायद वह उससे बात ही न करे। वह पंखी से बात करने के अवसर को नहीं खोना चाहता था। अब हवेली से निकलते ही उसकी आँखें पंखी को ढूँढ़ना शुरू कर देतीं लेकिन शायद उसे शाम को ही समय मिल पाता इसीलिए वह सूर्यास्त के समय ही आती थी।

अगले दिन संध्या समय सुहास हरिया काका के साथ मिल के निरीक्षण के लिए गया था वहाँ
से वापस आने में देर हो गई। घर पर पहुँचते ही उसे याद आया कि पंखी उसका इंतजार कर रही होगी, किंतु सूर्य अस्त हो चुका है, अंधेरा होने लगा है, क्या वो अभी भी वहाँ होगी? शायद नहीं, पर अगर हुई तो? नहीं इतनी देर तक भला कोई लड़की क्यों उस सुनसान जगह पर रुकेगी? और मैंने भी कब कहा था कि मैं आऊँगा?
ऐसे ही तरह-तरह के विचारों का आवागमन उसके मस्तिष्क में हो रहा था, पर फिर भी वो कई बार जिद्दीपन दिखाती है और ऐसी जिद में वो क्या पता वहाँ प्रतीक्षा कर रही हो! यह खयाल आते ही सुहास बिजली की सी फुर्ती से उठा और चल दिया।
"सुहास कहाँ चल दिए, पानी भी नहीं पिया?" पीछे से माँ ने पुकारा।
"अभी आता हूँ माँ" कहकर वह देखते ही देखते आँखों से ओझल हो गया। न जाने कौन सी शक्ति है जो उसे इस अंधेरे में नदी के किनारे उस सुनसान जगह की ओर लिए जा रही थी। ज्यों ही सुहास वहाँ पहुँचा वह स्तब्ध रह गया....अंधेरे में भी उसी टीले पर बैठी पंखी को उसने पहचान लिया।
"यह क्या पागलपन है पंखी? मैंने थोड़ी न कहा था तुमसे कि मैं आऊँगा, फिर क्यों यहाँ बैठी हो?" सुहास आवेश में बोला। उसे खुद ही समझ नहीं आ रहा था कि इस समय उसे पंखी पर क्रोध आ रहा था या प्यार। कैसी पागल और ज़िद्दी लड़की है ये... वह चाहता था कि उसे इस बेवकूफी के लिए डाँटे पर दिल कह रहा था कि क्या सचमुच वह उसे इतना प्यार करती है!
"आप न आते तो मैं रात भर यहीं बैठी रहती छोटे ठाकुर, न विश्वास हो तो आजमा लेना।" उसने बड़े ही शांत स्वर में कहा, देर से आने के लिए न कोई शिकवा न शिकायत बस ऐसा लग रहा था मानों नदी की चंचल धारा एकाएक शांत होकर गुनगुना उठी।
"इसमें कोई समझदारी नहीं है पंखी, अगर मैं अभी भी नहीं आ पाता तो तुम यहाँ बैठकर क्या हासिल कर लेती।" सुहास की आवाज में नरमी आ गई।
"प्यार हासिल करने के लिए नहीं किया छोटे ठाकुर, मैंने तो प्यार में खुद को खो दिया है तो मुझे तो तुम्हारे इंतजार में भी सुख मिलता है।" पंखी की सरसराती सी मधुर आवाज सुहास के दिल में उतर गई।
"प्यार...." उसका हृदय जोर-जोर से धड़क रहा था। उसका मन हुआ कि कहे कि अंधेरा होने के बाद वह यहाँ न रुका करे, यहाँ इस ओर लोगों का आना-जाना नहीं होता, इसलिए अकेली लड़की का वहाँ होना खतरनाक हो सकता है पर उसके विचार उसके मन में ही दम तोड़ गए।
दोनों बातें करते हुए गाँव की ओर चल दिए।

धीरे-धीरे सुहास और पंखी रोज ही मिलने लगे,  एक-दूसरे को देखे बिना दोनों का दिन अधूरा रहता।
नदी के किनारे पेड़ की घनी छाँव मखमली घास पर सुहास लेटा हुआ सोच रहा था कि आज वह पंखी से पूछ ही लेगा कि वह उसे पहले से ही कैसे जानता है? बहुत दिन हो गए दोनों रोज मिलते हैं, बातों-बातों में समय का पता ही नहीं चलता, कभी-कभी तो बाहों में बाहें डाले एक-दूसरे के खयालों में खोए-खोए ही समय बीत जाता और कुछ कहने-सुनने की सुध-बुध ही न रहती।  तभी पायल की छन-छन की आवाज से सुहास की तंद्रा भंग हुई।
"पंखी आज तुमने बहुत देर कर दी!" सुहास ने बैठते हुए कहा।
देर कहाँ छोटे ठाकुर, मैं तो रोज के समय पर ही आई हूँ।
हाँ पंखी पर अब तो इंतजार का एक-एक पल भारी लगता है।"
"अच्छा जी! तो अब हुआ आपको मुझसे प्यार।" पंखी अपने घुटनों पर बैठते चहकते हुए बोली।
"अच्छा, आज हुआ! तो अब तक क्या था?" सुहास उसकी आँखों में झाँकते हुए उसको अपनी ओर खींचते हुए बोला।
"छोड़ो छोटे ठाकुर आप तो बहुत..." कहते हुए पंखी चुप हो गई।
"बहुत क्या पंखी?" उसकी आँखों में शरारत तैर रही थी।
"कुछ नहीं।" पंखी ने पलकें झुकाते हुए कहा।
"पंखी! बहुत दिनों से एक बात पूछना चाहता था पर कभी समय ही नहीं मिला।" सुहास मुद्दे की बात पर आते हुए बोला।
"क्या?" उसने कहा।
"क्या हम दोनों एक-दूसरे को पहले से जानते हैं?" सुहास ने गंभीर स्वर में पूछा।
"ऐसा क्यों पूछ रहे हैं आप।" पंखी ने जमीन पर घास की फुनगी को नाखून से कुतरते हुए पूछाः
"पता नहीं क्यों जब पहली बार तुम्हारा नाम सुना था तभी से ऐसा लगा मानो मैं तुम्हें जानता हूँ।" सुहास ने कहा।
"तो सचमुच आपको कुछ याद नहीं?" पंखी के हाथ एकाएक रुक गए।
"नहीं, तुम बताओ न प्लीज" सुहास याचक की भाँति बोला।
"छोटे ठाकुर! मैं पंखुड़ी, जिसे आपने ही एक बार चिढ़ाने के लिए पंखी, पंखा, पंख कहा था। अब कुछ याद आया या नहीं?" पंखी सुहास की आँखों में देखती हुई बोली।
"पंखुड़ी" वह होंठों मे बुदबुदाया। वह धीरे-धीरे अतीत की गहराइयों में खोने लगा....

वह सात-आठ साल का था, गाँव के जमींदार का बेटा होने के नाते कक्षा में सभी बच्चे उसके दोस्त कम डरते अधिक थे कि उनकी कोई बात उसे बुरी न लग जाए पर एक पंखुड़ी ही ऐसी थी जो उससे बिल्कुल भी नहीं डरती थी। दोनों में कक्षा में फर्स्ट आने की होड़ लगी रहती। एक बार परीक्षा के समय किसी शरारती बच्चे ने सुहास के बैग से पेंसिल आदि सभी सामान निकालकर फेंक दिया। सुहास जब परीक्षा देने के लिए बैठा तो बैग में कोई भी सामान न था, उसकी आँखों में आँसू छलक आए, पंखुड़ी ने देखा और चुपचाप अपनी पेंसिल-बॉक्स लाकर  उसे दे दिया और स्वयं जाकर उस बच्चे का पेंसिल बाक्स लेकर अपना काम करने लगी। मास्टर जी ये सारी प्रक्रिया देख रहे थे, अतः उन्होंने कारण पूछा तो पंखुड़ी ने सबकुछ उन्हें बता दिया। उस दिन के बाद सुहास और पंखुड़ी  अच्छे दोस्त बन गए और न सिर्फ स्कूल में बल्कि बाहर भी दोनों साथ-साथ खेलते। खेल में भी दोनों एक ही टीम में रहते। सुहास की पंखुड़ी से इतनी गहरी दोस्ती हो गई थी कि इससे पहले किसी से नहीं हुई। किन्तु किस्मत को भी उनकी दोस्ती रास नहीं आई। कहते हैं न कि एक जंगल में दो शेर नहीं रह सकते या एक म्यान में दो तलवारें नही रह सकतीं। गाँव के ही दूसरे ठाकुर थे, जिनके साथ जमीन को लेकर  रंजिश चल रही थी, एक दिन शाम को सूर्यास्त के समय जब किसान अपने-अपने खेतों से घर की ओर लौट रहे थे, चरवाहे अपने-अपने मवेशियों के साथ लौट रहे थे सुहास के पिता ठाकुर महेंद्रसिंह जीप की पिछली सीट पर बैठे थे, ड्राइवर दीना ड्राइविंग सीट पर बेफिक्री से गाड़ी पगडंडी पर दौड़ाए जा रहा था। पगडंडी के दोनों ओर उनके खेत दूर-दूर तक फैले थे। वहीं पेड़ों के झुरमुटों में बच्चों का समूह रोज की भाँति दुनिया जहान की फिक्र से दूर अपनी ही दुनिया में मस्त खेल में तल्लीन था।  तभी सुहास ने अपनी जीप को दूर से ही पहचान लिया और अपने पिता से मिलने के लिए उतावला होकर जीप की ओर भागा...तभी धांय की एक आवाज के साथ ही जीप पलट गई। सुहास के पैर जैसे अपने स्थान पर जम गए.... जीप से जैसे-तैसे ठाकुर साहब निकले उन्हें उठता देख सुहास फिर उनकी ओर भागते हुए चिल्लाया, "पिताजी!"
जब तक ठाकुर साहब उठे वह पास पहुँच चुका था, ठाकुर महेंद्र सिंह ने दीना को उठाया पर उसके तो सीने में गोली लगी हुई थी और उसकी साँसें बंद हो चुकी थीं। दूर से ही जीप की हालत देख लोग उनकी मदद के लिए दौड़े तभी एक साथ दो बार आवाज आई धांय..धांय.. और ठाकुर साहब जमीन पर गिर गए सुहास सकते की स्थिति में अपने स्थान पर मानों जम गया।
"बेटा भाग ज् जा भाग..भाग" ठाकुर महेंद्र सिंह के बार-बार बोलने पर सुहास की चेतना लौटी, वह वापस पेड़ों के झुरमुटों की ओर भागा उधर से पंखुड़ी भागती हुई उसकी ओर आ रही थी, तभी एक और फायरिंग की आवाज आई लेकिन तब तक दो मजबूत हाथों ने उसे उठा कर एक ओर दौड़ लगा दी और पेड़ों की आड़ लेता हुआ छिपता-छिपाता गाँव में ले आया, सुहास हरिया के सीने से चिपटा अपनी सुध-बुध खो चुका था।
 उस हादसे का सुहास के मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ा, वह भयातुर रहने लगा साथ ही घटना का साक्षी होने के कारण उसके प्राणों पर भी संकट गहराया हुआ था। बड़े ठाकुर की अपनी कोई संतान न थी अतः सुहास ही ठाकुर खानदान का इकलौता वारिस था, इसीलिए उसकी सुरक्षा के लिए ठाकुर राघवेंद्र सिंह ने उसे अपने किसी मित्र के पास अपने गाँव से सैकड़ों किलोमीटर दूर भेज दिया था ताकि वह वहाँ रहकर सुरक्षित रहते हुए शिक्षा ग्रहण कर सके तथा यहाँ की शत्रुता का प्रभाव उस पर न पड़े।
मुंबई में रहते हुए भी उसे उस खौफ़नाक घटना की डरावनी यादों से बाहर निकलने में कई साल लग गए थे। उसे उस हादसे से निकालने के लिए बड़े ठाकुर ने आकाश पाताल एक कर दिया था, बड़े से बड़े मनोचिकित्सक से इलाज करवाया उनके सुझाव पर काउंसलिंग करवाई; लगातार दो-तीन साल के अथक प्रयास से वह अपने पिता की मौत के हादसे से बाहर निकल पाया था। 
"छोटे ठाकुर....छोटे ठाकुर!" पंखी ने पुकारते हुए सुहास को झंझोड़ दिया।
"अँ ह्हाँ"
"कहाँ खो गए थे?" पंखी ने शिकायत भरे लहजे में कहा जैसे कहना चाहती हो कि मेरे यहाँ होते आप कहीं और कैसे खो सकते हो?
"कहीं नहीं पंखी, वो मनहूस घटना जिसे मैं भूल चुका था, आज फिर से मेरी आँखों के सामने सजीव हो उठा।" सुहास की आवाज में दर्द
छलक आया।
"बीती बातें भूल जाओ छोटे ठाकुर, उनसे तकलीफ बढ़ती है, आप सिर्फ आगे की सोचिए ताकि सकारात्मक रह सकें।" पंखी ने कहा।
"हाँ तुम ठीक कहती हो पर...." सुहास ने बात अधूरी छोड़ दी
"पर-वर छोड़िए ये बताइए अगर आपके घर वालों को हमारे बारे में पता चल जाए और वो हमें मिलने न दें तो आप क्या करेंगे?" पंखी ने बात बदलने के उद्देश्य से कहा।
"वैसे मिलने क्यों नहीं देंगे मैडम?" सुहास ने पंखी की आँखों में झाँकते हुए कहा।
"बहुत से कारण हो सकते हैं छोटे ठाकुर...
पहले तो मुझे छोटे ठाकुर कहना छोड़ो, इतना समय हो गया पर गैरों की तरह तुम्हारी सुई  'छोटे ठाकुर' पर आकर अटक गई, आगे बढ़ती ही नहीं।" सुहास ने दिखावटी आक्रोश में कहा।
"अच्छा बाबा अब मेरी बात तो सुन लीजिए.....पंखी ने आगे कहना चाहा।
"मैं जानता हूँ तुम क्या कहोगी, मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि तुम बेफिक्र रहो, जाति-पाँति, अमीरी-गरीबी हमें एक-दूसरे से अलग नहीं कर सकती क्योंकि मैं तुम्हारे बगैर अधूरा हूँ पंखी, मैं तुम्हारे बिना अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता।" सुहास ने कहा।
"अच्छा! चलो इंतजार करते हैं।" पंखी ने खड़े होते हुए कहा।
"ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ेगा मैडम।" सुहास ने मजाकिया लहजे में कहा और उसका हाथ पकड़ गाँव की ओर चल दिया।

आज हवेली में चहल-पहल रोज की तुलना में कुछ अधिक ही थी। ज्यों ही सुहास ने हॉल में कदम रखा...
"लो आ गया सुहास।" माँ ने सोफे पर बैठी महिला से सुहास की ओर संकेत करते हुए कहा। वह एक अधेड़ उम्र की संभ्रांत महिला थीं साथ ही बड़े ठाकुर के साथ अधेड़ उम्र के एक रौबदार व्यक्तित्व वाले पुरुष बैठे थे।
"आओ बेटा बैठो, ये हरिपुर गाँव के ठाकुर प्रहलाद सिंह हैं और वो इनकी धर्मपत्नी, ठाकुर साहब और भाभी जी बहुत देर से तुम्हारा ही इंतजार कर रहे हैं, जाने से पहले तुमसे मिलना चाहते थे।" बड़े ठाकुर ने परिचय करवाते हुए कहा।
"जी प्रणाम, क्षमा चाहता हूँ कि मैंने आपको बहुत इंतजार करवाया, मुझे पता होता तो जल्दी आ जाता।" सुहास ने विनम्रता पूर्वक हाथ जोड़कर कहा।
"अरे नहीं बेटा, इसी बहाने हम थोड़ी और देर बात-चीत कर सके।" ठाकुर प्रहलाद सिंह की पत्नी ने कहा।
"अच्छा ठाकुर साहब अब आज्ञा दीजिए, फिर जल्दी ही मिलेंगे।" ठाकुर प्रहलाद सिंह ने खड़े होते हुए कहा साथ ही उनकी पत्नी भी खड़ी हो गईं।
दोनों को आदरपूर्वक विदा करने के उपरांत पूरा परिवार हॉल में एकत्र था मानो किसी महत्त्वपूर्ण मसले पर चर्चा करना चाहते हों। ठाकुर प्रहलाद सिंह को सपत्नी देखकर न जाने क्यों सुहास का माथा ठनका, उसकी छठीं इंद्री सक्रिय हो चुकी थी जैसे वह कह रही हो "सुहास इससे पहले कि कोई तुझे वचन आदि का वास्ता देकर तुझे कमजोर करे तू अपनी बात को कह दे साथ ही उन्हें इसकी गंभीरता से भी अवगत करा दे।" सुहास मन ही मन भूमिका तैयार करने लगा कि किस प्रकार वह अपनी बात को बड़े ठाकुर के सामने रखे।
तभी ठाकुर साहब की आवाज ने उसको सचेत किया, "सुहास! तुम्हारी पढ़ाई अब पूरी हो चुकी हैं और तुमने अपनी जिम्मेदारियों को भी उठाना शुरू कर दिया है, तो हम सोच रहे थे कि अब परिवार को और बढ़ाया जाए"
"ताऊ जी आप कुछ कहें उससे पहले मैं कुछ कहना चाहता हूँ ।" सुहास बीच में ही बोल पड़ा।
"बोलो क्या कहना चाहते हो?" ठाकुर राघवेंद्र सिंह ने कहा।
"ताऊ जी मैं जानता हूँ कि गाँवों के और शहर की मान्यताओं, रीतियों में बहुत फर्क होता है और आपने मुझे बचपन से शहर में ही रखा, जहाँ न मुझपर कोई बंधन था न रोक-टोक, इसलिए आज भी शायद मेरी कुछ बातें आपको अच्छी न लगें पर....
"तुम इतनी लंबी चौड़ी भूमिका बाँधने की बजाय सीधे मुद्दे की बात करो सुहास।" माँ बीच में ही बोल पड़ीं, उनके मन में आशंका होने लगी कि जरूर सुहास कुछ ऐसा कहने वाला है जो किसी को अच्छा नहीं लगेगा। कहीं वह वापस शहर तो?
"तुम क्या कहना चाहते हो बेटा?" बड़ी माँ ने आशंकित होकर पूछा।
"बड़ी माँ मैं एक लड़की से प्यार करता हूँ।" सुहास ने बहुत मुश्किल से साहस जुटाकर कहा।
क्क्या? सुहास की माँ को झटका लगा।
"तो तुम उससे ही शादी करना चाहते हो?" बड़े ठाकुर ने शांत स्वर में कहा।
"जी" सुहास ने सिर झुकाकर कहा।
"उसका खानदान, जाति सब हमसे मेल खाते हैं?"
"नहीं, पर ताऊ जी वो बहुत संस्कारी और सुंदर है, पढ़ी-लिखी भी है। आप उससे मिलेंगे तो आपको भी पसंद आएगी।"
"ठीक है तुम्हारे कहने से एक बार मिल भी लेते हैं, किस गाँव से है वो लड़की?" ठाकुर साहब ने उसी प्रकार शांत स्वर में कहा।
"ये आप क्या कह रहे है? आपने तो ठाकुर महेन्द्र सिंह की बेटी के लिए हाँ कहा है।" बड़ी ठकुराइन बोल पड़ीं।
"कोई बात नहीं ठकुराइन, अभी हमने फैसला नहीं किया है और सुहास हमारा इकलौता बेटा है, अगर जैसा वह कह रहा है कि लड़की पढ़ी-लिखी, सुंदर और संस्कारी है तो हम सिर्फ खानदान के कारण अपने बेटे की खुशियाँ नहीं छीनेंगे।"
"पर ठाकुर महेन्द्र सिंह?" माँ ने अपनी आशंका जताई।
"उन्हें हम समझा देंगे, हमने उन्हें पहले ही कहा है कि सुहास की रजामंदी के बाद ही यह रिश्ता होगा।"
"पर हम जिस समाज में रहते हैं वहाँ...।" बड़ी ठकुराइन ने कहना चाहा।
समाज के भय से हम अपने बेटे की खुशियाँ नहीं छीन सकते ठकुराइन, हम नहीं चाहते कि हमारे बेटे के मन में एक पल के लिए भी गाँव में रहने के फैसले पर पछतावे का भाव आए।" बड़ी ठकुराइन की बात बीच में ही काटकर ठाकुर साहब बोले।
सुहास मन ही मन अपने ताऊ जी की दरियादिली पर नतमस्तक हुआ जा रहा था।
"सुहास कल उसके माता-पिताजी से हम मिलना चाहेंगे।" कहते हुए ठाकुर साहब उठे और छड़ी टिकाते हुए भीतर चले गए। सुहास उन्हें धन्यवाद कहना चाहता था पर भावातिरेक में मुँह से शब्द न निकल सके।
सभी लोग लॉन में बैठे थे, इंतजार करते हुए एक घंटा बीत गया था, पंखी ने सुहास से कहा था कि वह पाँच बजे अपने माता-पिता को भेजेगी, पर अब छः बज चुके थे। सुहास की बेचैनी बढ़ती जा रही थी, तरह-तरह की आशंकाओं ने मनोमस्तिष्क पर कब्ज़ा करना शुरू कर दिया था। कहीं ऐसा तो नहीं कि उसके माता-पिता ने ही इस रिश्ते के लिए मना कर दिया हो।
वह स्वयं को रोक न सका और कार पोर्टिको की ओर बढ़ गया।
ठाकुर साहब उसकी मंशा भांप गए और बोले- "रुको सुहास! तुम अकेले नहीं, हम भी चलते हैं तुम्हारे साथ।"

सुहास गाड़ी की ड्राइविंग सीट पर था साथ में हरिया काका शगुन के सामान के साथ थे, पिछली सीट पर बड़े ठाकुर और ठकुराइन बैठे थे। सुहास ने गाड़ी पक्की पगडंडी से उतार कर बाँयी ओर कच्चे रास्ते पर मोड़ दी। हरिया आशंकित हो बोल उठा-
"इधर कहाँ बेटा?"
सुहास कुछ नहीं बोला और दो मिनट में गाड़ी एक विशाल पेड़ के नीचे बने एक कच्चे लेकिन बड़े से घर के बाहर खड़ी थी।
गाड़ी से उतर कर तेजी से सुहास घर के दरवाजे की ओर बढ़ा और पंखी को पुकारा... पंखी.... पंखी... बाहर आओ।
तब तक ठाकुर, ठकुराइन और हरिया भी गाड़ी से बाहर आकर खड़े हो चुके थे।
"कौन है?" कहते हुए एक वृद्ध लाठी टेकते हुए बाहर आया पीछे-पीछे एक वृद्धा थी, दोनों ही बहुत अधिक वृद्ध और कमजोर थे, कमर झुकी हुई काँपते हाथों से छड़ी पकड़े खड़े रहने का प्रयास कर रहे थे। सुहास ने शायद उनकी इस अवस्था की कल्पना भी न की होगी इसीलिए वह एक पल को किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा रह गया; उसे समझ नहीं आया कि क्या कहे। परंतु बूढ़ी आँखों ने बड़े ठाकुर को पहचान लिया..
"ठाकुर साहब आप! इस गरीब की कुटिया में?" वह इधर उधर देखने लगा मानों सोच रहा हो कि कहाँ बैठाए।
"मालिक शायद सुहास बेटा को कोई गलतफहमी हुई है।" हरिया बोला
"पंखी कहाँ है काका?" सुहास ने हरिया काका की बात अनसुनी करते हुए वृद्ध से पूछा।
"कौन पंखी बेटा, और आप कौन हो?" वृद्ध ने पूछा।
"मालिक सुहास बेटा को रोकिए।" हरिया बड़े ठाकुर से हाथ जोड़कर बोला।
"क्यों हरिया क्या हुआ?" ठाकुर साहब ने पूछा। पर सुहास ने इन सब पर ध्यान नहीं दिया।
"काका पंखी, पंखुड़ी आप ही की बेटी है न! उसने पाँच बजे आपको हमारी हवेली पर भेजने के लिए कहा था और अब खुद ही गायब है।" सुहास ने आवेश में कहा।
"आप ये क्या कह रहे हो छोटे ठाकुर, और कोई मजाक नहीं मिला जो हमारे घावों को इस तरह कुरेदने लगे!" वृद्धा जो शायद पंखी की माँ थी, ने काँपते हुए कहा।
"क्या मतलब है आपका?" ठाकुर साहब ने कड़कती आवाज़ में पूछा।
वृद्धा शायद खड़ी न रह सकी वहीं धरती पर बैठ गई।
"साहब हमारी पंखुड़ी तो बचपन में ही अपने  अभागे माँ-बाप को छोड़कर सदा के लिए भगवान को प्यारी हो गई थी और छोटे ठाकुर कह रहे हैं कि वो आज उनसे मिली थी। ये कैसे हो सकता है?" बूढ़े व्यक्ति ने कहा।
सुहास के मानो पैरों तले की जमीन किसी ने खींच ली हो।
"आप झूठ कह रहे हैं, अरे क्यों कर रहे हैं ऐसा?" सुहास लगभग चीख पड़ा।
हरिया ने सुहास की पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा- "ये सही कह रहे हैं बेटा, तुम्हें कोई गलतफहमी हुई है।"
सुहास को काटो तो खून नहीं, उसे समझ नहीं आ रहा था कि ये सब ऐसा क्यों बोल रहे हैं। वह बड़े ठाकुर से बोला-
"ताऊ जी मैं जिस दिन गाँव आया मुझे उस आँधी-तूफान में हवेली का रास्ता पंखुड़ी ने ही दिखाया था, हम रोज नदी के किनारे मिलते है, घंटों बातें करते हैं, वो मेरे बचपन की दोस्त है, जब मैं यहाँ पढ़ता था तो वो मेरी ही कक्षा में थी। मुझे एक दिन गलत फहमी हो सकती है रोज थोड़े ही हो सकती है।" सुहास बदहवास सा बोलता ही जा रहा था।
ठाकुर और ठकुराइन स्तब्ध खड़े थे।
"ऐसा नहीं हो सकता ठाकुर साहब जब छोटे ठाकुर साहब को गोली मारी थी तो एक गोली और चली थी सुहास बेटा के ऊपर , उनको तो हरिया ने बचा लिया था पर वो गोली मेरी लाडो को लग गई। साहब आप ने अपने भाई का बदला तो लिया, उनका खानदान खतम कर दिया पर उस दुश्मनी में मेरी दुनिया उजड़ गई ये आपको पता भी न चला।"  पंखी के वृद्ध पिता ने रोते हुए बताया।
सुहास को मानो साँप सूँघ गया, उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या सच और क्या झूठ है।

वही सुरमई शाम, सूर्य क्षितिज में आधा समा चुका था पक्षी दल अपने-अपने घोसलों की ओर जा रहे हैं, चरवाहे अपने मवेशियों को हाँकते हुए गाँव की ओर लौट रहे हैं, किसान खेतों से घरों को चल पड़े हैं। सूरज की लाली से नदी भी लाल हो चुकी है, सुहास उसी टीले पर बैठा डूबते सूरज को सूनी आँखों से देख रहा है। पंखी उसके लिए अभी तक भटक रही थी! वो बचपन की दोस्ती अब भी निभा रही थी, उसकी आत्मा अपने माता-पिता के लिए भी चिंतित होगी ये वजह भी हो सकती है उसके भटकने की, वह मरने के बाद भी अपने बूढ़े माता-पिता के प्रति संतान का फ़र्ज निभाने आई थी, तभी तो उसने अपने घर का मार्ग दिखाया। हाँ, मैं पंखी के बूढ़े माता-पिता को बेसहारा नहीं छोड़ सकता, मैं उन्हें अपने पास रखूँगा। सुहास ने मन ही मन फैसला किया। पर मैं कैसे जिऊँ पंखी तुम्हारे बिना। वह सूनी आँखों से शून्य में ताकते हुए खोया हुआ था तभी किसी के हाथों का स्पर्श कंधे पर पाकर वह चौंक गया...
"पंखी!" उसके मुँह से निकला।
"पंखी नहीं छोटे ठाकुर, मैं सुधा, ठाकुर महेन्द्र सिंह की बेटी।" कहती हुई वह सामने आई, "मुझे बड़े ठाकुर साहब ने सब बता दिया है, मैं पंखी तो नहीं बन पाऊँगी पर उसके बूढ़े माता-पिता की बेटी और यहाँ इस नदी के तट की आपकी संगिनी बनने की कोशिश जरूर कर सकती हूँ, अगर आप अनुमति दें तो।"
#मालतीमिश्रा

आज हिन्दू ही हिन्दू का शत्रु बना हुआ है
कहीं ब्राह्मण तो कहीं दलित बना हुआ है,
सोने वालों को जगा लें
सुबह की किरण दिखाकर या रब
उसे कैसे जगाएँ
जिसने अक्ल का दरवाजा बंद कर लिया है।
#मालतीमिश्रा

गुरुवार

अलसाए दृग खोल भानु ने
पट खोला अंबर का
निरख-निरख के छवि तटनी में
मन मुदित हुआ दिनकर का
अगुवानी दिवाधीश की करने
तट पर विटप झुक आए
पथ में बिछा सुरभित पंखुड़ियाँ
कर मंगलगान हरषाए।
#मालतीमिश्रा

शनिवार


मैं ढलते सूरज की लाली
कुछ पल का अस्तित्व है मेरा
फिर तो लंबी रात है काली
सब पर एक सा प्यार लुटाकर
अपने रंग में रंग दूँ धरा को
पत्ता पत्ता डाली डाली
मैं ढलते...

जानूँ अपनी नियति का लेखा
कुछ पल में मैं ढल जाऊँगी
सौंदर्य बिखेरा अपनी हर शय
सबके मन को मैं लुभाऊँगी
नहीं किसी से बैर निकाली
फिर भी मेरा दामन खाली
मैं ढलते....
#मालतीमिश्रा

बुधवार

दिल आखिर तू क्यों रोता है....2

दिल आखिर तू क्यों रोता है....2
दिल आखिर तू क्यों रोता है

जीवन मानव का पाकर
जो इस दुनिया में आते हैं
जैसे कर्म करते इस जग में
वैसा ही फल पाते हैं
तेरे किए का क्या फल होगा
ये कब किसके वश में होता है
दिल आखिर तू क्यों रोता है...

जीवन दिया जिस जगत पिता ने
उसने संघर्ष की शक्ति भी दी
कष्ट दिए गर उसने हमको तो
पार निकलने की युक्ति भी दी
माना कि कष्ट प्रबल होता है
पर धैर्य ही अपना संबल होता है
दिल आखिर तू क्यों रोता है.....

यह जीवन एक तमाशा है
हर मोड़ पे आशा और निराशा है
आशा का सूर्य उदय जब होता
तम रूपी निराशा छट जाती है
टूट जाए जो धैर्य का संबल
जीवन वो कभी न सफल होता है
दिल आखिर तू क्यों रोता है......
#मालतीमिश्रा

कृत्रिम मानवता

कृत्रिम मानवता
मानव होकर यदि मानवीय गुणों से रिक्त रहे तो मानव जन्म सार्थक नहीं हो सकता। सहृदयता और समभाव इसी गुण का हिस्सा है, कुछ लोगों में ये गुण जन्मजात होते हैं तो कुछ लोगों में ज्ञानार्जन के बाद आते हैं। जिनमें जन्मजात होते हैं उनमें तो स्वाभाविक रूप से सभी प्राणीमात्र के लिए ये भाव होते हैन किन्तु जिनमें ज्ञान प्राप्ति के बाद ये गुण पनपते हैं उनमें इन गुणों के साथ ही पात्रता का भी उत्सर्जन होता है। किसके प्रति सहृदयता का भाव रखना है? किन-किन को समानता के भाव से देखना है ? ये सब वो अपने ज्ञान औऋ पसंद के आधार पर तय करते हैं।
ऐसे व्यक्तित्व के स्वामी को जहाँ समाज में किसी एक वर्ग के एक व्यक्ति की पीड़ा इतना व्यथित कर देती है कि वह हफ्तों तक रूदन करते हैं तो वहीं दूसरे वर्ग के पूरे-पूरे समूह की तबाही व विनाश भी उनके हृदय को पिघला पाने में असमर्थ रहता है। एक ताजा उदाहरण तो आज का ही है बहुत से ऐसे बुद्धिजीवी हैं जो आज त्रिपुरा में लेनिन की एक मूर्ति गिराए जाने से भीतर तक काँप गए, दहशत में आ गए साथ ही देश के भविष्य और विश्व में इसकी उज्ज्वल छवि के लिए चिंतित भी हुए परंतु यही बुद्धिजीवी तब नहीं घबराए, न दहशत में आए न ही देश की छवि को लेकर चिंतित हुए जब ममता बनर्जी की अगुवाई में हिंदू मंदिरों को ढहाया गया। ये तब नहीं दहशत में नहीं आए जब हिंदुओं की पूरी की पूरी बस्ती जला दी गई।
कैसा ज्ञान है ये? कैसी मानवता है? जो किसी एक धर्म विशेष के लिए सो जाती है और संहारक तत्वों के प्रति मानवीय संवेदना व्यक्त करने के लिए जागृत हो उठती है।
#मालतीमिश्रा

रविवार

वसुधैव कुटुंबकम् की धारणा

वसुधैव कुटुंबकम् की धारणा
मनुष्य हर पल हर घड़ी हर स्थान पर हर परिस्थिति में कुछ न कुछ सीखता ही है, बेशक उसे उस वक्त इसका ज्ञान न हो परंतु आवश्यकता पड़ने पर उसे अनायास ही परिस्थिति घटना समस्या और समाधान सब याद हो आते हैं और तब महसूस होता है कि हमने अमुक समय अमुक सबक सीखा था। अत: जब हम जाने-अनजाने प्रतिक्षण सीखते ही हैं तो क्यों न हम प्रकृति से भी सीखें। प्रकृति एक ऐसी शिक्षक है, जिसकी शिक्षा ग्रहण करके यदि मानव उसका अनुकरण करने लगे तो 'वसुधैव कुटुंबकम' महज एक मान्यता नहीं रह जाएगी बल्कि यह सहज ही साक्षात् दृष्टिगोचर होगी।
आकाश पिता की भाँति सभी प्राणियों पर बिना भेदभाव के समान रूप से अपनी छाया करता है, धरती सबकी माँ है, इसे देश, नगर, गाँव में मनुष्यों ने बाँटा है, नदी जल देने में, वृक्ष फल व प्राणवायु देने में जब कोई भेदभाव नहीं करते, सभी प्राणिमात्र पर सदैव समान कृपा करते हैं तो हमें भी उनसे सीख ग्रहण कर अपने बीच के भेदभाव मिटाकर आपसी भाईचारे को बढ़ावा देना चाहिए तभी यह वसुधैव कुटुम्बकम् की धारणा साकार हो सकती है।
मैं मानती हूँ कि आज के समय में यह इतना सहज नहीं है परंतु जिससे जितना हो सके उतना तो अवश्य करना चाहिए मसलन अपने आस-पास यदि हम किसी की कोई मदद कर सकें तो यथासंभव करना चाहिए इससे उस इंसान का इंसानियत पर विश्वास बढ़ जाता है तथा वह या अन्य जिसने भी उस क्षण का अवलोकन किया होगा, सक्षम होने की स्थिति में दूसरों की मदद करने में कतराएँगे नहीं। इंसानियत से ही इंसानियत का जन्म होता है और मनुष्य को स्वार्थांध होकर अपना यह सर्वोच्च गुण नहीं त्यागना चाहिए।
व्यक्ति से समाज और समाज से गाँव, नगर और देश बनते हैं। किसी भी देश के सम्पन्न होने के लिए उसके नागरिकों की सम्पन्नता आवश्यक है और इसके लिए प्रत्येक नागरिक का शिक्षित होना आवश्यक है अतः यथासंभव हमारा प्रयास यही होना चाहिए कि कोई बच्चा अनपढ़ न रहे क्योंकि शिक्षा ही वह माध्यम है जो व्यक्ति से उसकी स्वयं की पहचान कराती है तथा उसे उसकी मंजिल तक ले जाती है।
#मालतीमिश्रा